By Kritika Pande
मैंने शब्दों में पिरोकर, वेदना को चित्र सा रूप दिया
कभी रचा क्षुधा से विक्षिप्त सा हीन आकार,
कभी बलवान की ठोकर खाए, निर्बल को चित्रित किया ।
रचनाएँ यह बलवान थी, मेरा सम्मान बढ़ाने वाली
हर सम्मेलन में चर्चित थी, हृदय में टीस उठाने वाली
आलोचकों में प्रसिद्ध यह, समाज को जगाने वाली ।
पर क्षुधा पीड़ित की पीड़ा को, प्रत्यक्ष किसी ने नहीं जिया
आंसू भी नहीं जिनमें,उन पथराई आंखों को क्या दिया
मैं हूं प्रसिद्ध पूरे नगर में, पर हमने उसका क्या किया ।।
कलम शक्तिशाली है मेरी, तलवार से भी बढ़कर
यह विश्व पहचाने मुझे, मेरी कलम के दम पर
यदि एक दीन हीन को, पत्रिका की कथा बना दूं
तो संपन्न वर्ग की जड़े, पूरी तरह हिला दूं ।
हो त्राहिमाम सारे जगत में, नारे नगर में गूंजे
के क्यों ना उसे उसका हक मिला, जन जन यह पूछे
पर कांपते उस हाथ में, रोटी का इक टुकड़ा ना दिया
मैं हूं प्रसिद्ध पूरे नगर में, पर हमने उसका क्या किया ।।
विद्यालय की पुस्तक में, एक और नया पाठ जुड़ा
गरीबों के दुख और वेदना का, छात्रों में ज्ञान बढ़ा ।
वे बैठकों में चर्चा करके, सोचते हैं समाधान
वे नुक्कड़ों पर चीख के, आकर्षित करते सबका ध्यान।
है पक्ष, है विपक्ष, है कितनी पोथी ज्ञान की
विचारों का महासागर है, जहां बात हो निर्बल के सम्मान की
पर फुटपाथ पे ठिठुरते उस बच्चे को, कपड़े का इक टुकड़ा ना दिया
मैं हूं प्रसिद्ध सारे नगर में, पर हमने उसका क्या किया ।।