By Kartavi
Satyarthi
सुनो
तुम्हारी कुछ बातें हैं
आदतें हैं
जो तुम समझते हो आम हैं
पर हम पर इस क़दर असर करती हैं
मानो मन के आंगन में कड़ाके की सर्दी में
धूप सी खिल उठी हो,
जानते नहीं हो?
या बस मानते नहीं हो?
तुम्हारी मुस्कान है ना,
जब एक कान से दूसरे कान को
बेतरतीबी से छूती है,
तो तुम्हारी आंखों तक चांदनी सी
बिखर जाती है,
और हमारे यहां जो अंधेरे आसमान हैं ना,
उनमें पूर्णिमा सी आ जाती है,
ये भी जानते नहीं हो?
या बस मानते नहीं हो?
जब कोई बुद्धू सा joke कहके,
एक टक हमारे हंसने का इंतज़ार करते हो,
और जो हंस दें तो,
खुद भी खिलखिला जाते हो,
तो वो पूर्णिमा है ना,
ऐसे में थोड़ी और चकाचौंध से बिखर जाती है,
बोलो ना,
नहीं जानते हो?
या बस मानते नहीं हो?
बातें तो बहुत हैं ऐसी,
छोटी छोटी आदतें बहुत हैं,
जो कहती हैं ये लो,
तुम्हारे हिस्से में जो रोशनियां हैं,
उनका एक टुकड़ा ये भी है,
जब दोनो हाथ कमर पर रख,
किसी उलझन में झुंझलाए से खड़े रहते हो,
जब उपेक्षा भरी बात को,
खूबसूरत अनुवाद में बदल देते हो,
और फिर वही भीनी सी मुस्कान उसपे सुकून से टांक देते हो,
जब सुबह सुबह किसी दूर दराज हादसे पे
बेचैन हो जाते हो,
जब कोई बात यूं ही, क्यों नहीं,
कहकर माफ कर देते हो,
जब बस बेइंतहा याद आते हो,
पर आज जानना बस इतना चाहती हूं,
की बिलकुल भी जानते नहीं हो?
या बस मानते नहीं हो?