By Shivangi Tiwari
कैद में मानवाधिकार।
तेरे लाचार समाज को यू !
देख कर मैं सोचा करती हूं। की समय के पहिए को,पीछे कुछ घुमाया करती हूं।
क्यों वह रंग कुछ फिके से पड़ गए? कि सरकारों के इस दौर में प्रवक्ता कठपुतली बनकर रह गए।
थे कभी जो कार्य करता lआज, वह लोग कैदी बनकर लोहे। की जंजीरों में सिमट गए।
जिनकी कविताओं से विचारों के, समा बधा करते थे।
कि वह खुद कैद खानों की दीवारों में कहीं खो गए।
क्या सरकारे। इतनी अहम है?
कि अब हम खुद को यूं बांधा करते हैं। क्यों पूछते नहीं इन पाखंडियों से?
कि देश को यू गवाया करते हैं।
पर तुम हारना मत, की कोई तो होगा।
जो आवाजों को बुलंद, किया करेगा। होगा कुछ सही नहीं। तो गलत को आइना दिखाया करेगा।
तुम रुकना नहीं, कि कलम की ताकत को कम मत तोला करो।
बनेगी लकीरें रोशनी की भी,
यह अंधेरा ग्रहण है।
ता उम्र का तो नहीं।
Beautifully presented 😀