By Jaya Mishra
देखे मौसम देखी सदियाँ
मैं मूलों से ही जुड़ा रहा
उड़ते देखे नभ में पँछी
मैं वृक्ष वहीं था खड़ा रहा
ऋतुओं का प्रकोप झेला
जेठ की दुपहरिया झेली
तड़ित प्रहार ओला वृष्टि
चिरकाल से पीड़ा झेली
झेला मैंने घोर एकाकीपन
सहा कुठार का आघात
मूक-विवश मैं जन्मजात
ना रोक सका कोई त्रास
मुझे काटने में दिन सारा बिताया
खूब पसीना था उसे भी आया
टुकड़े गिरते देख रहा था अपने
विकल्प न था मैं भाग न पाया
फलों का मौसम आना था पर
वो नव पल्लव अब सिकुड़ गए
टूटी टहनियाँ और बिखरे पत्ते
रिस-रिस प्राण मेरे उजड़ गए
जिन पथिकों को छांव दिया
उन सबने मुझे मरोड़ा था
सड़कें चौड़ी करनी थी सो
मैं बीच रास्ते रोड़ा था
वहीं कहीं घोंसले अपने ढूंढने
शाम को चिड़ियां आयी थी
सौंप के गयी थी नन्हें बच्चे
पर देख दृश्य अकुलाई थी
अथक परिश्रम से उसने
तिनका-तिनका जोड़ा था
अपना छोटा-सा परिवार
उसने मेरे भरोसे छोड़ा था
भूखों को फल भी देता था
मैं ज़हर शहर का चखता था
हँसते-खेलते बच्चों को मैं
बस यूँ ही तकता रहता था
किसे सुनाऊँ मैं अपनी पीड़ा
क्या यह हत्या अपराध नहीं?
कोई लड़ने भी ना आया क्यूं
असहाय का वध पाप नहीं?
मानवों की इस धरती में
मुझ बेबस का ज़ोर कहाँ था?
सबको मैंने साँसे बाँटी पर
मेरी साँसों का मोल कहाँ था..
- जया मिश्रा(पाण्डेय) “अनजानी”"
so beautifully personified
Nice poem