सियाने की दौड़ – Delhi Poetry Slam

सियाने की दौड़

By Himanshi Khatwani

"खुद से ही दौड़ लगा रहे हैं,
कोई मंज़िल की तरफ बे-फ़ुज़ूल ही भाग रहे हैं।
सपने सजा कर सो रहे हैं,
उजाले होते ही वो दिखना बंद हो गए हैं।
ये कैसे जी रहे हैं?
हांफ रहे हैं,
फिर भी दौड़ में ही भाग रहे हैं।
क्या हम थोड़े में जीना भूल रहे हैं?
हम फिर अंधेरे में बच्चों का भविष्य बना रहे हैं।
शायद,अब हम महसूस करना कम कर रहे हैं,
हम अब आमदनी की दौड़ में भाग रहे हैं।
बड़े होने का नाटक कर रहे हैं,
हम बच्चों की अगली सांसें, दौड़ में दफ़न कर रहे हैं।
हम खुशी का नकाब पहन,
अब थोड़े बड़े हो गए हैं।"


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