वालिद ए मरहूम की याद में – Delhi Poetry Slam

वालिद ए मरहूम की याद में

By Hamzah Gayasuddin

वालिद ए मारहूम की याद में।

राज़ है, राज़ है तकदीर ए इंसानी की हिकायत इस जहां में,
खालिक ए आदम क्या चाहता है इससे है उसका बंदा महरूम,
सीना ए दन्युब ओ नील जिस कदर तवील है,
खुदा की खलकत यकीनन उन से भी ज़्यादा वसी है।

ऐ वालिद ए मोहतरम, जिस दिन मैंने देख लिया सेहरा ओ समंदर,
जिस दिन मैंने जान लिया इश्क, मौत और मर्सिया,
जिस दिन मैंने तलब की इल्म ओ हिक्मत बेइंतेहा,
जिस दिन मैंने कलम उठाया, तहरीर ए इंकिलाबी की इब्तिदा
जिस दिन मैंने आवाज़ उठाई, तकरीर ए नौजवान की इस्तेघ्ना
जिस दिन मैं खड़ा हुआ बनकर तेरा जां नशीन
उठा मैं उन सुनसान गालियों की तन्हाइयों से
जो कभी तेरे फसानों से थीं मुनव्वर,
उठा मैं जब इस गुलिस्तां में न बुलबुल थी, न मसर्रत थी, न नर्गिस थी और न ही गुल
आसमां मजबूर थी, शम्स ओ क़मर मजबूर थे
शायद इस ना मुकम्मल गुलिस्तां को, अगर कुछ कमी थी तो वो तेरी ही थी।

जिस दिन, ऐ वालिद ए मोहताराम, मैने जाना इस जहान ए काफ़ ओ नून का राज़,
वो राज़, वो राज़ था किरदार ए इंसानी,
के जोश ए किरदार ही से खुलते है तकदीर के राज़।
लेकिन अफसोस, जब तक मैं जान पाता,
उससे कब्ल ए पेश ही छिन गया तेरा साथ।

क्या तुकझो है याद जब तू मुझ से कहता,
“ऐ मेरे फरजांद, तेरे सीने में है पोशीदा राज़ ए जिन्दगी कह दे
अपने दिल की आवाज़ इन्ही लबों से कह दे
यही तेरी फितरत है, यही मेरी फितरत है
सदाकत, शुजाअत, अखूवत ओ मुसर्रत,
यही इस गुलिस्ता की आइनी ज़रूरत है।“

है मेरी रब से यही इल्तेजा कि
हो तुझ से मेरा दीदार उस जहां में,
कि पूछूं तुझको के क्यों
छोड़ गया दौर ए तिफली में तु मुझे।


Leave a comment