By Dr. Jyotsna Sharma
याद आती है, मुझे आज भी,
मेरे घर की वो, छोटी सी छत।
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भागना, दौड़ना, हँसना, खिलखिलाना,
ना जाने खेले कितने, बचपन वहाँ पर,
सिमटे हुए थे, खुशियों भरे पल
हाँ, याद आती है मुझे आज भी,
मेरे घर की वो छत
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माँ की गोद और पिता का दुलार,
अम्मा का पंखा झलना,
और बाबा से सुननी कहानियाँ बेशुमार
हाँ, याद आती है मुझे आज भी,
मेरे घर की वो छत
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चिड़िया उड़ी हो या हो पिट्ठू गरम,
न जाने खेले कितने खेल यहाँ पर,
बस मन में भरा था खुशियों का खज़ाना
हाँ, याद आती है मुझे आज भी,
मेरे घर की वो छत
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गर्मी की तपती धूप देखी ,
सर्दी की कड़कड़ाती शाम,
बारिश की बूंदों में करना छप छप और
सखियों संग देखा बसंत सुबह शाम
हाँ, याद आती है मुझे आज भी,
मेरे घर की वो छत
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शाम ढले ठंडी हवा और
दूध से नहाई, रात का होता इंतज़ार.
तारों की चमकती, चादर ओढ़े
कब नींद का आ जाना .
फिर सुबह सवेरे, छत पर आकर
परिंदों का होता मधुर गान.
हाँ, याद आती है मुझे
आज भी मेरे घर की वो छत.
Thanks Delhi poetry slam for giving me this opportunity