By Ankit Pandey
नारी के त्याग को उजागर करती यह काव्यरचना प्रस्तुत है। यहाँ उस समय का संदर्भ लिया गया है, जब माता सीता अपने दोनों पुत्रों लव एवं कुश तथा गुरु श्री वाल्मीकि के साथ अयोध्या आती हैं और उनसे पुनः उनकी पावनता की परीक्षा देने के लिए कहा जाता है।
भाग-1: राजा राम का प्रासाद - सजावट
वाद्य बजे श्री थाल सजे,
कलशे पर दीप निहाल जले
वातायन से मुट्ठी भर-भर
किरणे ढोती सी वात चले।
स्वर्णो माणिक्यों से सज्जित
शोभायित होता कोण-कोण
मानो असंख्य दिनकर छोटे
घुस आए कण-कण तोड़-तोड़
उल्लास प्रसारित करता सा
दीपों का थाल सजाकर के
नारियाँ प्रफुल्लित स्वागत में
हाथों में कलश उठाकर के।
रघुराजभवन माधुर्य पूर्ण
मंगलगीतों से गुंजित है।
सरयू प्रदेश की धरा आज
आह्लाद भाव से सिंचित है।
केसरिया आँचल फैलाये
नैसर्गिक आवाहन करती
मानो ममता से सराबोर
पुचकार रही प्यारी धरती
अपने मे अद्वितीय अनूठा
आज राजदरबार लगेगा।
राजमहल का हिस्सा-हिस्सा
क्षण-क्षण का एक साक्ष्य बनेगा।
फिर से नव सोपान बनेंगे
सही-गलत का निर्णय होगा।
क्या अभाग से मुक्ति मिलेगी
या फिर से भाग्य विपर्यय होगा।
देश-देश के राजा सहचर
सेवक, प्रजा, स्वजन व अनुचर
साक्षी होंगे महायज्ञ का
देव व्योम से आज उतरकर
भाग-2: श्रीराम की मनःस्थिति:
कभी उमंगों से भर जाते
राम कभी घबराए से
सोच-सोचकर व्याकुल होते
मन मे मर्म छिपाए से
जनक दुलारी वन-वन मारी
आज प्रिया घर आएगी।
त्रस्त परीक्षाओं से हो क्या
क्षमा मुझे कर पायेगी।
अग्निशिखा के सम्मुख प्रण कर
जिसे ब्याह कर लाया था
उसी अग्नि से सिंचित करके
पावन जिसको पाया था।
पतितों को मैं पावन करता
दुःखियों का उद्धार किया
रामराज के मिथ्या मद में
पत्नी पर अपकार किया
प्रजापति और जनसेवक हूँ
राजा हूँ पर पति भी हूँ।
जगपालक साक्षात विष्णु
पर मृत्युलोक की गति में हूँ।
जो भी हैं ललकार रहे
जनकनंदिनी के व्रत को
आज परीक्षा अंतिम होगी
जग देखेगा उन्नत हो।
उस देवी के सम्मुख नत हो
आत्मसमर्पण कर जाऊँगा।
अंकपाश में भरकर उसको
सिंहासन तक ले आऊँगा।
मंगल जयस्वरगान राज्य के हर कोने में जायेगा
तब ही होगा सही न्याय रामराज आ जायेगा।
जय-जय सीता राम प्रजा का मन जब नाद लगाएगा
तब ही होगा सही न्याय रामराज आ जायेगा।
भाग-3: सीता का आगमन:
चली पवन कुछ पावन सी
लेकर सुगंध मनभावन सी
नैसर्गिक आभा सी विसरित
माता, गुरु व दो बाल सहित
आगन्तुक नागर और अतिथि
सिंहासन से श्रीराम उठे
बद्ध करों के साथ सभी के
मुख से जय जयगान उठे।
नयनों में अश्रु अपार लिए
उर में संगिनि का प्यार लिए
अधरों में शब्द अटकते से
और समय के अनगिन वार लिए
श्रीराम निशब्द खड़े अपलक
अपराधभाव का भान लिए
जग की खातिर सिय को छोड़ा
उस कटु अतीत का ध्यान लिए
भाग-4: सीता से प्रश्न:
पति के पदचिन्हों पर गामी
हे सीते! तुमको वंदन है
नारी की मर्यादाप्रतिमा
उस देवी का अभिनंदन है
महलों की थी सुकुमारि
परंतु कष्ट वनों के खूब सहे
शत्रु सदन में रहकर भी
निज मर्यादा का भान रखे।
तुम कभी अपावन नही हुई
देवों-दनुजों को भान है ये
कुछ तुच्छ जनों का लांछन तो
इस देवी का अपमान है ये।
है जगत सदा से ऐसा ही
नैया इसकी विपरीत चले।
निर्माण अगर करने जाओ
जग में ताण्डव का गीत चले।
देवी! चाहे तुम कुछ भी हो
जग में हो तो बस मानव हो।
जग का ओछापन झेल रही
फिर भी मृदु सरला नीरव हो।
हे देवी! एक बार फिर से
आभास दिला दो उन सबको।
तुमने जो त्याग किया अब तक
सब याद दिला दो अब उनको।
सीते! ज्यों अग्निपरीक्षा दी
फिर से एक और परीक्षा दो।
इन निरे मूढ़ नासमझों को
पावनता की एक शिक्षा दो।
भाग-5: सीता का उत्तर और धरती का फटना:
देवी उठकर आई सम्मुख
पति, गुरु चरणों के वंदन को
सब आगंतुक दरबारीगण
अवधीजन के अभिनंदन को
हे पूजनीय, हे वंदनीय
हे देव देवियों साक्षी हो
मेरे तप, त्याग, परिश्रम और
पावनता के सब पाखी हो।
नारी ही आदिशक्ति रूपा
उससे ही सकल समष्टि हुई।
ये जग, प्राणी, चर अचर सभी
देवों दनुजों की सृष्टि हुई।
नारी ही श्रद्धा, भक्ति, प्रेम
नारी जननी जग संचालक
नारी संस्कारो की पोषक
नारी ही है सबकी पालक
सह रही युद्ध की पीड़ा भी
जो नारी युद्ध का हेतु बनी
मर्यादा पुरुषोत्तम की
मर्यादाओं का सेतु बनी
ये बार-बार की घटनाएँ
ये भाँति-भाँति की शंकाएँ
तप-तपकर जीवन जी कर भी
संशय के क्षण क्यों घिर आयें।
अब तक चुप थी मर्यादा से
कब तक चुप साधे बैठूँगी
एक निराकरण की आशा में
जग का मुख ताके बैठूँगी।
है नारी केवल भोग हेतु
भोक्ता भी है परिणामों में
यहाँ वंश भी पुरुषों से चलते हैं
नाम वही यशगानों में
जग के सब पापों-पुण्यों को
धारण करने वाली जननी
हे जगचालक हे जगपालक
आश्रयदात्री, हे माँ धरणी।
स्त्री है ही अस्तित्वरहित
तुम तो सब जान रही माता
जग सारा तुमसे ही पलता
फिर तुमको ही लतियाता।
इस कष्टमयी जीवन मे
भीषण पाप किया यदि हो मैंने।
स्वजनों, चर-अचर, किसी को भी
सन्ताप दिया यदि हो मैंने
मैं दण्ड अकारण भोग रही
जननिर्णय अंगीकार करूँ
अब तक तो झेल रही ही थी
आगे भी सब स्वीकार करूँ।
पर मैंने श्रीरामचंद्र के
शिवा किसी का ध्यान अगर
मनसा वाचा और कर्मों से
लाया न हो कोई नाम अपर
यदि मैने रक्षा अब तक की
निज धर्म और पावनता की
पतिव्रत के पालन में कुछ
यदि कोई भी कमी नहीं बरती
हे माँ धरती, सुन ले विनती
दे दे मुझको निज अंक पुनः
स्थान दे मुझको गोदी में
बहुत सहा है कठिन विरह
स्थान दे मुझको गोदी में
अब और परीक्षा नहीं पुनः
दे दे मुझको निज अंक पुनः
धरती सहसा ममता से भर
नयनों में अश्रुधारा तर-तर
एक नाद के साथ विदीर्ण हुई
मानो फैलाये दोनों कर
भूमिसुता अब भूमिगता
पुष्पों की देव करें वर्षा
है धन्य देवि, है धन्य देवि
सुर नर जन-जन यह बोल उठा।।
भाग-6:
त्रेता बीता, द्वापर बीता
तब से जन्मी कितनी सीता
पग पग पर त्याग पतिव्रत का
अरसे बीते युग युग रीता।
पर आज वही क्यों स्थिति है
सीता ही आज परीक्षित है
क्या जननी होना शाप सदृश
अब भी वह घर तक सीमित है।
अंकित पाण्डेय