माँ….. – Delhi Poetry Slam

माँ…..

By Amit Dwivedi


माँ क्यूँ मुझे लोग कहते हैं
की अगर पढ़-लिख गयी तो, मैं बहक जाऊँगी
मर्यादाओं की चादर फाड़ ,मैं उड़ जाऊँगी
मेरे नन्ही उँगलीयों में क़लम देख कर
क्यूँ डरते हैं ये लोग ?
क्या पढ़-लिख जाने से लोग बहक जाते हैं ?
क्या सच-मूच इतना बुरा है शिक्षित होना
मैंने तो सोचा था चाँद पर जाऊँगी
चंदा मामा से कह कर
तुझे एक नयी साड़ी दिलाऊँगा
ये फटी बेरंगी साड़ी अब अच्छी नहीं लगती
तुझे ऐसे देख मेरी अंतरमन है सिहरती
मैंने तो यह भी सोचा था
मैंने तो वह भी सोचा था
कितने सपने थे मेरे,
कितने अरमान थे मेरे
सब कुछ भूला दिया
गुस्ताखी बस यही की लड़की हूँ मैं
.. माँ सच बोलूँ
वो बच्चे नसीब वाले होते हैं
जो कोख में ही दम तोड़ देते हैं
एक बार में ही सारी सज़ा भुगत लेते हैं
यूँ बार बार हर मोड़ पर ताने सुना
दूसरों के एड़ियों के नीचे दबे रहना
कोई निगाहों से डसता है
तो कोई ज़ुबान से नोच लेता है
कब तक मरूँ मैं क़िस्तों में
अब सहा नहीं जाता
इतना ज़ुल्म इस छोटी उम्र में....
हर बार जब भी मैं कुछ करना चाहती हूँ...
तुम मुझे निर्बल बनाते हो
नारी सोभाग्य नहीं दुर्भाग्य है ये सिखाते हो
चलो छोड़ो माँ...
मुझे नहीं पढ़ना
आगे नहीं बढ़ना
एक काम करो
पापा कह रहे थे ना किताबों को आग लगाने को
मुझे भी साथ जला देना
क़िस्तों में नहीं मरना मुझे
जहाँ ना समझे कोई मुझे
वहाँ नहीं रहना मुझे
अब तो माँ उद्धार करो
जो भूल हुयी सब माफ़ करो
अगली बार ध्यान रखना
जब कोख में बेटी हो
तो वहीं मार देना उसे
बड़ा ज़ालिम हैं ज़माना
नित-रोज़ नए ज़ुल्म आज़माता है
..... मगर याद रखना
जब भी परिणाम आएँगे परीक्षाओं के
दशवीं के हो या बारहवीं के
आईआईटी हो या मेडिकल
एस.एस.सी. हो या यू.पी.एस.सी.
लड़कियों के परिणाम से
जब पटा होगा अख़बार
तब न पछताना
अभी भी वक़्त है
झाँको अपने ज़हन मैं
मेरी भावना को समझो
वहाँ तस्वीर मेरी भी तो हो सकती थी
काश एक मौक़ा बिगड़ने का ही दे देती
मैं सुधर भी तो सकती थी


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