By Aadya Sisodiya
सुलघता चिराग भी मैं, समंदर का सैलाभ मैं —
आँधी का तिनका— बाड़ का मोती—
दुनिया को संभालती ज़मीन, हर कला का विसाल हूँ मैं
उतरता नशा और ढलती शाम भी मैं,
तुम हूँ मैं, और तुम में मैं।
तेरा टूटा तारा और आशा की किरण हूँ मैं,
वो ख़्याल भी जो कभी भुला न पाया—
वो सपना जिसका खौंफ, जिसकी दहशत तेरे ज़हन को तड़पाती है रात भर—
मैं वो हकीकत हूँ जिसकी स्च्चाई पर तूने कभी यक़ीन न पाया|
हर एक कण में मैं, क्षण-क्षण में मैं
मेरा स्वरूप, मेरा साया, मेरा अस्तित्व, मेरी काया—
तुम मुझे समझ कर भी अबुझ पहेली पाओ
देखकर भी पहचान न पाओ, तुम्हारे सामने मौजूद तुम्हारा भरम हूँ,
टूटे दिल से जुड़ी दिल्लगी— आशिक़ की महकशी—
तारों से भरी चादर में, चाँद का अकेलापन हूँ
बस वो राह हूँ जिसपर बिन मंजिल तलाश किए तुम चलते जाओ।
शायर के बिखरते लफ्ज़— कलम में बहता लहू—
अरे किसी का लख़्ते-जिगर, किसी की दुखती रग हूं —
माया का सार हूँ, संघार हूं— तुम्हारा बिन बुलाया मह मान हूं—
तुम्हारा परिणाम, मैं केवल तुम्हारे अस्तित्व का प्रमाण हूँ—
तुम जो निभाओ मैं वो सारे मुखौटे हूं—
क्योंकि मैं तुम्हारा प्रतिबिंब हूँ।
निराशा की उमीद— भटकती निगाह
तुफ़ान की ख़ामोशी— ख़ुदसे ख़ुदका तर्क हूं—
जल, जीवन, पानी, पत्थर—
खाक, सुराख, मन के अंदर—
इंसान की दहलीज़-ए-मुकाम तक मौजूद मैं—
प्रतिबिंब हूं मैं। प्रतिबिंध हूं मैं। प्रतिबिंब हूं मैं||