In Conversation with Varsha Rani – Delhi Poetry Slam

In Conversation with Varsha Rani

Varsha Rani earned the third position and a cash prize of INR 20,000 for her poem युद्ध at the Wingword Poetry Competition 2025. We interviewed her about her art and vision, and her answers provided us with much to reflect upon. 

Born in Bhagalpur, Varsha Rani is a poet, translator, journalist, and cultural historian with a penchant for creative expression. She holds an M.A. in History from the University of Delhi and a Diploma in Journalism from the Indian Institute of Mass Communication. She continues her research as a doctoral candidate at the School of Interdisciplinary and Transdisciplinary Studies, IGNOU.

Her professional journey has been diverse: from teaching History at Janki Devi College to serving as Sub-Editor with Samachar Bharati, while also working as a feature writer for Portfolio Syndicate Services. Over the decades, she has authored more than six books and a hundred articles in leading Indian and international publications, writing on Indian heritage, environment, travel, women’s issues, and culture. Some of her notable works include Walking with the Buddha (1999), Visions and Dreams (1989), and translations such as S.H. Raza’s Mukhtsar Si Meri Kahani (2022) and Anees Salim’s Uske Vanshaj (2022).

Since 2017, she has been actively writing poetry in both Hindi and English, presenting at literary gatherings such as the ICCR-sponsored seminar on poetry at Daulat Ram College and the Poetry Collective meet at the Kiran Nadar Museum of Art. Her creative work reflects a deep engagement with philosophy, history, and the human condition. At present, she works as a freelance journalist, researcher, editor, translator, poet, and still photographer, weaving together the many strands of her intellectual and creative life. 

आपने इतिहास, संस्कृति और पत्रकारिता से लेकर हिंदी और अंग्रेजी में कविता रचने तक की यात्रा की है I एक इतिहासकार के रूप में आपका प्रशिक्षण,जो प्रमाण,कालक्रम और सन्दर्भ पर आधारित है का असर आपकी कविता पर कैसे पड़ता है ? क्या इतिहास और कविता की ये प्रवृत्तियाँ कभी आपस में टकराती हैं ?

फ्रेंच इतिहासकार मार्क ब्लाक ने सही कहा था की “इतिहास सभी विषयों की जननी है,” मेरी समझ से इतिहास और साहित्य दोनों का अन्योनाश्रय सम्बन्ध है, इसलिए एक इतिहासकार का प्रशिक्षण कविता लिखने के आड़े नहीं आता, बल्कि उसके सृजन में मददगार साबित होता है I I ऐतिहासिक प्रमाण, कालक्रम और सन्दर्भ तीनों ही कविता की पृष्ठभूमि तैयार करने तथा विषयवस्तु, भाव और लेखन शैली के चयन में अहम् भूमिका निभाते हैं I फिर कविता चाहे व्यक्तिपरक हो या विचारपरक, भावपूर्ण हो या घटना-संबंधी, इतिहास उनके बारे में गहराई से देखने-परखने और सोचने-समझने के बाद भावनात्मक अभिव्यक्ति की वह अद्भुत क्षमता देता है, जिसके माध्यम से कवि की रचना अपनी समसामयिक सामाजिक, राजनैतिक,आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों, चुनौतियों, द्वंदों, मुद्दों और संघर्षों का आईना बनकर, अपनी कृतियों द्वारा उसे जन-जागरण का अवसर भी प्रदान करती है I  

इतिहास और कविता दोनों की दोहरी भूमिका होती है, क्योंकि तथ्यों का आकलन करने का उनका ढंग अलग-अलग होता है और इस कारण से उनके लिए एक दूसरे का विरोधी और पूरक दोनों ही होना संभव है I इतिहास-विशेष तथ्यों को और कविता आम-यथार्थों को अलग-अलग तरीकों और उद्देश्यों से पेश करती है I अपनी विभिन्न प्रवृतियों के कारण, कविता जिन व्यक्तिपरक मानवीय आयामों को दर्शाती है, उन्हें नज़रंदाज़ किए बिना भी इतिहास सामाजिक, राजनैतिक,आर्थिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकता है I जब कविता की जड़ें इतिहास में पैठती हैं, तो उसकी उप-शैली ऐतिहासिक कविता का जन्म होता है, जिसमें  अतीत की घटनाओं को कलात्मक रूप में प्रस्तुत करने के लिए काव्यशास्त्र का उपयोग किया जाता है I       

आपने एस. एच. रज़ा की आत्मकथा का हिंदी अनुवाद किया है और अनीस सलीम और इस्कंदर पाला जैसे लेखकों के कार्यों को नए पाठकों तक पहुँचाया है I एक अनुवादक के रूप में आपकी सबसे बड़ी नैतिक या सौन्दर्यात्मक ज़िम्मेदारी क्या है ? मूल के प्रति निष्ठा, या नई भाषा में उसकी गूँज और प्रभाव पैदा करना ?

एक अनुवादक का प्रथम दायित्व होता है कि वह मूल के प्रति निष्ठावान होते हुए, उसके कथानक और उसमें वर्णित तथ्यों,यथार्थों, घटनाओं, विचारों, मानवीय अनुभवों और नैतिक मूल्यों की गूँज और प्रभाव को एक नई भाषा के पाठकों तक असरदार ढंग से पहुँचाए I उसे अपने संभावित पाठकों के साथ मूल कृतित्व के सौन्दर्यबोध को सांझा करते हुए, उसके नैतिक मूल्यों को भी उजागर करना चाहिए, जिनके माध्यम से सामाजिक परिवर्तन को सकारात्मक बल देने की चेष्टा की गई हो I  

आपके कामों में बिहार की असाधारण लड़कियों की कहानियों ( Voices of Change ) से लेकर पुणे की महिला पुजारियों पर बनी फिल्म तक स्त्रियों के जीवन और संघर्ष दर्ज हैं I क्या आप इन्हें भारतीय सांस्कृतिक और धार्मिक इतिहास में स्त्री शक्ति की पुनर्प्राप्ति की लम्बी परंपरा का हिस्सा मानती हैं या फिर ये विशेष समकालीन आवश्यकताओं को संबोधित करनेवाले स्वतंत्र हस्तक्षेप हैं ?

हां ! निस्संदेह यह भारतीय सांस्कृतिक और धार्मिक इतिहास में स्त्री शक्ति की पुनर्प्राप्ति की एक लम्बी परंपरा का हिस्सा है, ना की विशेष समकालीन आवश्यकताओं को संबोधित करनेवाले स्वतंत्र हस्तक्षेप I  न केवल भारत में बल्कि विश्व में नारी सशक्तिकरण का एक बहुत ही लम्बा और संघर्षपूर्ण इतिहास रहा है I अपना  मनपसंद जीवन जीने का आंशिक अधिकार प्राप्त करने में स्त्रियों को सदियों लग गए I  भारत में जिन महिला मुक्ति आन्दोलनों ने शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक और कानूनी मुद्दों पर स्त्रियों को जागरूक बनाते हुए उन्हें एकजुट होकर संघर्ष करना सिखाया, वह एक क्रमिक प्रक्रिया थी I इसका प्रारंभ 19वीं सदी के मध्य के सुधार आन्दोलनों से हुआ था, जिसके तीन चरणों स्वतंत्रता से पहले, स्वतंत्रता के बाद और स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान के अग्रदूतों में राजाराममोहन रॉय, ईश्वरचंद विद्यासागर, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गाँधी, सावित्रीबाई फुले, पंडिता रमाबाई, ताराबाई शिंदे, सरोजिनी नायडू, वीणा मजुमदार इत्यादि मूल रूप से उल्लेखनीय हैं I संविधान ने स्वतंत्रता के बाद स्त्रियों को समानता का अधिकार, लिंग या धर्म के आधार पर भेदभाव से मुक्ति और धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी दी I छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85) में उन्हें ‘विकास का भागीदार’ भी घोषित किया गया I महिलाओं के चतुर्मुखी विकास के लिए 2001 में राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण नीति पारित हुई, तथा 2011 में राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण मिशन की शुरुआत हुई I प्रतिवर्ष 13 फरवरी को राष्ट्रीय महिला दिवस एवं 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है I भारत के केंद्र और राज्य सरकारों के लिए नारी सशक्तिकरण अब एक मुख्य मुद्दा बन चुका है l पितृसत्तात्मक समाज में केवल अपनी सृजनशक्ति के कारण महिमामंडित होनेवाली गृहिणी बने रहने की जगह, 19वीं सदी की भारतीय महिलाओं ने शिक्षा, व्यवसाय, स्वास्थ्य, भूमि स्वामित्व, रीति-रिवाज़ों, कार्यबल में उचित सम्मान, राजनैतिक समानता, न्याय, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता जैसे अन्य मुद्दों को भी अपना लक्ष्य बनाया और इन्हें प्राप्त करने के लिए आवश्यक अवसरों और संसाधनों को जुटाने में भिड़ गईं I इस प्रकार बिहार की असाधारण कामकाजी बेटियों से लेकर पुरोहिताई की कसौटी पर खरी उतरनेवाली पुणे की योग्य महिलाओं ने, घर की देहरी के अंदर और बाहर दोनों स्थानों पर महिला सशक्तिकरण के दुर्लभ सपने को कतिपय साकार किया I समय के साथ इस संघर्ष से प्राप्त वैचारिक और व्यवहारिक आत्मविश्वास एवं आत्मसम्मान से महिलाओं ने काफी जद्दोजहद के बाद खुद को लैंगिक असमानताओं के जाल से बहुत हद तक बाहर तो निकाला, फिर भी भेदभाव रहित, न्यायपूर्ण, शांतिप्रिय और स्थिर समाज के निर्माण का उनका सपना पूरा नहीं हुआ I इस चिंता से ग्रस्त, वे आनेवाली पीढ़ियों को अपने अधिकारों की अर्जित थाती थमाते हुए, एक गूढ़ बात समझा गईं कि अपनी पहचान और अस्मिता बरक़रार रखने के लिए नारी को सतत संघर्ष करना होगा, क्योंकि उसके सम्पूर्ण सशक्तिकरण के बिना किसी भी सभ्य समाज का सर्वांगीण विकास और समग्र कल्याण नहीं हो सकता I इसलिए पुरानी पीढ़ी के सदियों के बहुआयामी संघर्ष से परिभाषित और स्थापित अधिकारों की रक्षा के लिए नई पीढ़ी को हमेशा सतर्क रहना होगा और आवश्यकतानुसार तत्परता से संगठित होकर हर अन्याय का विरोध करना होगा I इस परंपरा निर्वहन के परिप्रेक्ष्य में आज के समसामयिक मुद्दों और समस्याओं पर महिलाओं की त्वरित जवाबी कार्रवाई को केवल छिटपुट स्वतंत्र हस्तक्षेप नहीं मानना चाहिए, क्योंकि यह तो महिला अधिकारों तक पहुँच बनाने के लिए अपना जीवन उत्सर्ग करने वाली पुरानी पीढ़ी के कार्य को नई पीढ़ी द्वारा आगे बढ़ाने का जीवंत प्रयास है I महिलाएं हमेशा से जानती थीं कि अपने जीवन पर नियंत्रण, स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता, समाज के विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान देना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है, लेकिन पुरुष प्रधान समाज उन्हें थाली में परोसकर यह सारे अवसर आसानी से नहीं देनेवाला I इसलिए पुरानी पीढ़ी के संघर्ष से सबक लेकर नई पीढ़ी उत्तरोतर ऐसी रणनीतियों के तहत कार्य कर रही है, जिससे ज़रूरत पड़ने पर किसी भी तरह के शोषण का तक्षण प्रतिकार किया जा सके I        

एक अनुभवी कवि के रूप में, आपका युवा उभरते कवियों के लिए क्या सन्देश है ? क्या आपको लगता है कि युवाओं को पहचान पाने के लिए प्रयास करना चाहिए या केवल अपनी कविताएँ लिखने पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए ? आपके अनुसार कवियों को विंगवर्ड जैसी प्रतियोगिताओं में क्यों भाग लेना चाहिए ? 

मेरा युवा कवियों को सर्वप्रथम यही सन्देश है कि विविध साहित्य को निरंतर पढ़िए और अपने मनपसंद अच्छे- बुरे हर विषय पर सतत लिखते रहिए I पढ़ने-लिखने की यह कड़ी कभी टूटने न पाए - खास कर अपने लिखे को बार-बार पढ़िए और उसे सुधारते चलिए I कोई जल्दी नहीं है I अपनी संकुचित वैचारिक और भावनात्मक सीमाओं को लांघकर पहले अपने ज्ञान का विस्तार करिए I स्वान्तः सुखाय से सर्वजन सुखाय तक- कविता लेखन की यह कला-साधना अन्य बौद्धिक विधाओं की तरह निरंतर और व्यापक ज्ञानार्जन की मांग करती है I युवा कवियों को विशेष रूप से अधिक से अधिक और विभिन्न भाषाओँ के कवियों की रचनाओं और समालोचनाओं को पढ़ने की आवश्यकता है I इसी तरह से उन्हें कविता की विभिन्न शैलियों, विषयों और तत्वों जिनके युग्म से कविता अपना रुप, भाव, अर्थ और सौन्दर्य पाकर मनोवांछित रस निष्पत्ति करती है, की विस्तृत जानकारी मिलेगी और इसी के विश्लेषण से, वे अपने लेखन को बेहतर बना सकेंगे I कविता मुख्यरूप से स्वाभाविक होनी चाहिए, शर्तों पर लिखी हुई नहीं I आरंभ में आपसे आँख मिचौली-खेलने वाले भाव और शब्द, ज्ञान विस्तार और लेखन के अभ्यास के साथ-साथ खुद-ब-खुद मस्तिष्क में उमड़ते चले आते हैं और पंक्ति दर पंक्ति कविता सजती चली जाती है I धीरे-धीरे यही कविताएँ परिपक्व होकर आपकी आत्मा की आवाज़ बनकर मुखर होने लगती हैं I जब तक यह दिन नहीं आता, युवा कवियों से मेरा आग्रह है कि वे अपनी कला को निडर होकर विकसित करें, घबराएं नहीं, इसी संघर्ष से उत्कृष्टता का मार्ग प्रशस्त होगा I पढ़ने-लिखने पर ध्यान केन्द्रित करने के साथ–साथ युवा कवि यदि अपनी पहचान बनाने के लिए प्रयास भी करते हैं, तो इसमें कोई दोष नहीं I जो कला आम जन तक पहुँचकर उनके मर्म को स्पर्श ना करे, उनकी आत्मा को ना झिंझोड़े, उसकी सार्थकता सम्पूर्ण नहीं I 

क्या आपको लगता है कि अधिक लोगों को अपनी कविताएँ विंगवर्ड पोएट्री प्रतियोगिता जैसी कविताओं की प्रतियोगिताओं में भेजनी चाहिए? अगर हाँ, तो क्यों?

विंगवर्ड जैसी प्रतियोगिताओं में कवियों को अवश्य भाग लेना चाहिए, जो पिछले दस वर्षो से भी ज़्यादा अरसे से बिना किसी भेद-भाव के हर आयु के प्रतिभाशाली कवियों को अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए एक खुला प्रयोगात्मक और वैश्विक मंच प्रदान करता है I आज की दुनिया में कवियों को और खास कर आम हिंदी-भाषी कवियों को विंगवर्ड की 1)सराहना 2) पुरस्कार और 3) सोशल मीडिया पर अपनी रचनाओं और कला-कौशल के व्यापक प्रचार-प्रसार ने ना केवल अभूतपूर्व ढंग से प्रोत्साहित किया है, बल्कि कविता की विधा को समृद्ध बनाते  हुए उसकी प्रतिष्ठा को भी चार चाँद लगा दिया है I जैसे इतना ही काफी नहीं था कि विंगवर्ड अपने मार्गदर्शन में प्रथम पुरस्कृत कवियों को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने के लिए व्यवसायिक प्रकाशन से भी जोड़ने का प्रशंसनीय कार्य कर रहा है I 

 


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