By M S Mahawar
insta@_fitoor_e_ishq
जो तेरे घर को ना जाती हो,
सिर्फ़ उन्ही राहों पे चलना है,
तन्हाई की इतनी आदत हो चुकी है,
के अपने साये से भी बचकर निकलना है,
ज़माने ने पत्थर किया है,
मुझे फ़िर पिघलना है,
रही ना कोई आरज़ू अब,
मुझे अब सिर्फ़ ख़ुद से मिलना है,
नींदों की तलाश में निकला हूँ,
बस तेरे ख़्वाबों से निकलना है,
तुझसे मिलकर डर गया था ज़िंदगी से मैं,
मुझे फ़िर ज़िंदगी की बाहों में फिसलना है,
ख़्वाबों के सारे पन्ने फट गए थे,
अब उन्हें उम्मीद के धागे से सिलना है,
जैसे तुम बेपरवाह हो मुझसे,
मुझे भी तेरी जैसी आदतों में ढलना है ।
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This poem won in Instagram Weekly Contest held by @delhipoetryslam on the theme 'Trauma'
Khoob badhiya likhate ho bhai