हमारा परिवार घुमंतू पेड़ों का परिवार है
हमें अपने घरों से
उखाड़-उखाड़कर नयी जगहों पर छोड़ा दिया गया
हम बड़े जतन से वहाँ जड़ें जमाते
चिड़ियों-बंदरों-कबूतरों को अपने साथ बसाते
और दो ही बारिश बाद फ़रमान आ जाता
किसी भी हालत में
एक महीने के भीतर-भीतर
सब आवश्यक सामान समेटकर
नयी जगह जड़ें जमाने का
तब हम बड़े असमंजस में होते (हर बार)
चिड़ियाँ-बन्दर-कबूतर-कुत्ते-बिल्लियाँ
खेखरे के दिन रंगे गए सींगो वाली गाएँ
(जिन्हें हमारे चूल्हे की रोटी और दादी माँ की झिडकियों की आदत हो गयी थी)
कंकड़-पत्थर-पपड़ियाँ-ताकें
दरवाज़े-खिड़कियाँ-गर्डर-देहरियाँ
संभव-असंभव की क्रूर सीमाएं बना
हम नेह के टुकडे झाड़ते हुए
अपने आप को ४०८ गाडी में
लाद लेते.
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This poem won in Instagram Weekly Contest held by @delhipoetryslam on the theme 'Trauma'