सोचने लगूँ जब तन्हाई में बैठकर

By सुशील कुमार
सोचने लगूँ जब तन्हाई में बैठकर,
वो दर्द हर वक़्त मुझे सताता है,
टूट जाता है ये दिल अक्सर,
जब ताज पर हुआ वो हमला याद आता है,
कैसा खेल था वो खुदा का,
जहाँ एक मासूम अपनी जान गवाता है,
देखी नहीं जिसने जिंदगी भी अबतक,
वो लहू की दरिया में बह जाता है,
दोष न था उन बच्चे बूढ़ों का,
वो महिलाएं भी कहाँ किसी से लड़ी थी,
ताज के बेहद चमकते उस फर्श पर,
उन मासूमों की लाश पड़ी थी,
कयामत की रोज ऐ खुदा,
उन दरिंदों से जरूर ये कह देना,
क्या मर गई थी इंसानियत उनकी,
या रह गया था बस बद्दुआएं लेना,
जनन्त की आड़ में जो आतंक फैलाया,
नसीब दो गज जमीन भी ना हुई,
लाशें बिखेर कर जमीन पर,
आखिर कौनसी उनकी मुराद पूरी हुई,
सलाम है दिल से उन पाख रूहों को,
बचाया जिन्होंने इस वतन का चमन,
सच्ची मोहब्बत की इंसानियत से,
उन तमाम वीरों को शत शत नमन।।
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This poem won in Instagram Weekly Contest held by @delhipoetryslam on the theme 'Trauma' 

2 comments

  • well expressed!

    M S Mahawar
  • Achi lag rahi hai

    Vyga

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