प्रकृति मां की चीत्कार

By Shruti Garg

 

हैं एक चीत्कार उठी,
हां प्रकृति मां पुकार रही,
अपनी ही संतानों की
करनी का भार संभाल रही।

आज धधक रहे जो जंगल हैं,
वो प्रकृति मां का कोमल दिल हैं,
ज्वाला भभकी हैं जो आज,
वो हैं धरती के क्रोध का आगाज़।

लहरों में सिमटे खेत खलिहान,
गलियां, चौबारे, घर, मैदान,
जो तेरे लिए सिर्फ पानी का उफान हैं
वो प्रकृति मां के आंसुओ का सैलाब हैं

स्वच्छ, शुद्ध और कोमल पवन
हैं जिससे संभव श्वसन,
जो रौद्र रूप धर आज बन गई तूफान हैं,
ये सब तेरे ही स्वार्थ का परिणाम है।

कचरे के ढेर खड़े कहीं,
कहीं गंदगी का अंबार हैं,
भूल गए गंदगी फैलाने वाले,
कि प्रकृति हैं तो हम हैं और ये संसार हैं।

ये कोई मौसम का चक्र नहीं
प्रकृति मां की चेतावनी हैं,
अब भी ना जो सुधरे हम,
तो तय हमारी बर्बादी हैं।

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This poem won in Instagram Weekly Contest held by @delhipoetryslam on the theme 'Mother Gaia' 

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