Narendera Kumar
अक्सर देखा है हर पल मैंने,
अपनी इच्छाओं को पूरा होते,
जाने कितने राज़ छिपे हैं,
जाने कितने समझौते?
बाहर से वो कितने भी शख़्त हो,
दिल ऐसा, पिघले मोम के जैसे,
जाने कितने राज़ छिपे हैं,
जाने कितने समझौते?
थक जायें कितना भी ख़ुद से,
पर थकन नहीं होती हमसे,
कभी पीठ पे, कभी टाँग पे,
बिठा मुझे, मुस्कान संजोते
जाने कितने राज़ छिपे हैं,
जाने कितने समझौते?
बीमार कभी पड़ जाऊँ तो,
बाहों में भगते लिए समेटे
ना खाना देखा, ना कपड़े देखे
जाने दिन बिता कैसे, और जाने, रात कटी कैसे
जाने कितने राज़ छिपे हैं,
जाने कितने समझौते?
मम्मा कहती समान है लाना,
हम कहते लाना, जो माँगी विश थी,
दादी-दादी का ध्यान भी रखते,
केवल वो एक, थे कितने रिश्ते,
जाने कितने राज़ छिपे हैं,
जाने कितने समझौते?
अलादिन का चिराग़ मेरा वो,
खुदा वही, भगवान मेरा वो,
दुख के दलदल में ख़ुद रहकर,
कंधों पर रख कर मुझे हैं चलते,
जाने कितने राज़ छिपे हैं,
जाने कितने समझौते?
हाथों में रक्खा, ऊँगली को पकड़ा,
साथ रहे संग साया जैसे,
बस एक ख़्वाब ज़ेहन में हैं,
क्या साथ रहेगा तू वो ऐसे!
जाने कितने राज़ छिपे हैं,
जाने कितने समझौते?
जाने कितने राज़ छिपे हैं,
जाने कितने समझौते?
Great poetry.
Very emotional.
Bahut umda likha hai bhai aapne