मैं प्रेम चाहती हूँ मगर भिन्न

BY KANCHAN JHARKHANDE


मैं प्रेम चाहती हूँ मगर भिन्न,
मेरे अंतर्मन से आवाज़ आती है
की प्रेम स्वतन्त्र होता है।
इसमे ना कोई मोह होता है
ना ही कोई बन्धन
मैं प्रेम चाहती हूँ मगर भिन्न,
मैं हरगिज़ नही चाहती कि
कोई मुझे दीवानी कहे कृष्णा के प्रेम में 
ओर मैं नही चाहती राधा की तरह गैर से विवाहित हो जाना
मैं कदापि नही चाहती रूखमणी सा जीवन
मैं नही चाहती मीरा की तरह सिर्फ दासी होना
सीता बनकर भी मुझे नही देना
अग्निपरीक्षा
नही चाहिये मुझे उर्मिला की तरह
वनवास तक अंधकार में जीना
ना कौशल्या की तरह त्याग
ना कुंती की तरह वियोगित होना
ना द्रोपदी की तरह लज्जित होना
मैं प्रेम चाहती हूँ मगर भिन्न,
मेरे अर्थ में प्रेम की कोई सीमा नही
प्रेम बेशर्त, निर्मोह, अद्भुत होता है।
प्रेम का कोई अक्षांश नही होता
इसके छोर की कोई परिधि नही होती
प्रेम समांतर भी होता है
प्रेम असमान्तर भी होता है
प्रेम में ठहराव की कोई जगह नही होती
प्रेम निरन्तर होता है,
मेरी नजरों में प्रेम अनन्त होता है।
मैं चाहती हूँ प्रेम में लीन हो जाना
मेरे प्रेम का कोई नाम ना हो
कोई ना पूछें कि मेरे भीतर किसका वास है,
मैं अनन्त तक सिर्फ उसी की रहूँ...
माना कि दो समांतर रेखाओं का
कभी मिलन नही हो सकता पर 
अनन्त तक साथ चलना भी प्रेम है। 
प्रेम स्वतंत्र है....
प्रेम किसी को भी किसी से भी हो सकता है
प्रेम में कोई जाति, भेद, लिंग या 
परिस्थिति नहीं देखी जाती
प्रेम तो प्रेम है...


Kanchan Jharkhande is pursuing her post graduation from Bhopal. An adventurous Indian at heart, her hobbies lie in writing her own poems. 

Leave a comment

Please note, comments must be approved before they are published