By Gaurav Bhatnagar
एक बचपन दिखा आज...खोया सा, रोया सा, मुरझाया सा
रज़ाई की गर्माइश को ललचाता...ठिठुरा सा, सकुचाया सा
कूड़े के ढेर में सुक़ून तलाशता
थकी आँखों से एक ख़ामोश सवाल पूछता
इंसानी दरज़ों से समझौता सा करता
इस जहाँ में अपनी जगह टटोलता
बचपन में बचपने से अनजान, टूटे हुए गुड्डे गुड़ियों के लिए बनाता रेत का एक मकान
खिलखिलाते महकते बच्चों को देख के हैरान
आसमाँ से पूछता, क्यूँ ये सज़ा दी है मुझे भगवान
दूर क्षितिज के एक स्वप्न में ढूँढता अपना मकान
पूछा, क्या सोच रहे हो...भूखे हो इसलिए रो रहे हो?
ये बचा हुआ खाना लो...अक्सर यहीं से जाता हूँ, मेरी गाड़ी को पहचान लो...ये कुछ पैसे भी लो
बोला, हाथ फैले हैं आज ज़रूर मेरे, भूख से रो रहे हैं आज भाई मेरे
अंधेरी सड़क के कोने में माँ आज फ़िर सिल रही है पैबंद क़मीज़ के मेरे
बोला, हाथ फैले हैं आज ज़रूर मेरे, भूख से रो रहे हैं आज भाई मेरे
अंधेरी सड़क के कोने में माँ आज फ़िर सिल रही है पैबंद क़मीज़ के मेरे
थका हूँ...मायूस नहीं हूँ
मुरझाया हूँ...मरा नहीं हूँ
बहुत हुआ रोना...अपनी क़िस्मत को कोसना
उठूँगा इन्हीं रास्तों से, दूर क्षितिज का वो स्वप्न साकार करूँगा मैं
उठूँगा इन्हीं रास्तों से, दूर क्षितिज का वो स्वप्न साकार करूँगा मैं
भीख नहीं साथ दीजिए...मुझे भी खिलने का एक मौक़ा दीजिए
भीख नहीं साथ दीजिए...मुझे भी खिलने का एक मौक़ा दीजिए
महकूँगा मैं तो खिलखिलायेगा ये चमन, महकूँगा मैं तो खिलखिलायेगा ये चमन...कितना ख़ूबसूरत हो जाएगा ये वतन... कितना ख़ूबसूरत हो जाएगा ये वतन।\
Well written