By Pooja Kapoor
ख़ाक के सब ख़ाक में ही मिलते हैं
इसे मेरे अल्फ़ाज़ में घर लौट आने वाला सुकून कहते है ।
तेरा तन मिट्टी का तेरा मन मिट्टी का
तेरा आकार तेरे इरादों जैसा है ।
तू बिल्कुल उस नादान बच्चे जैसा है जो सही गलत का फ़र्क़ का जानते हुए तैश में अपने माता पिता को ही गलत समझता है-
तू बहता जाता है अपनी ही धुन में सैलाब जैसा
तुझे कोई होश नही है तेरे घर में मचती तबाही का ।
मुझ को फिर भी नाज़ है तेरी तरक्की पर-
मुझे तेरे काम आना तुझे याद आना तेरे ख़ातिर बदलते जाना और शायद किसी रोज़ तेरे ख़ातिर खो जाना
मुझे ये सब बिन शर्त का प्यार लगता है ।
पर-
कुछ बदल सा गया है बीते कुछ कलो के बाद
तू मेरे प्यार को मुझ पर अपना अधिकार समझता है
तू भूल गया है कुदरत के शून्य और इकाई को तू भूल चुका है अपने ही अंत और शुरुआत को ।
तू नुमाइशो और फरमाइशों के बवंडर में उलझा हुआ है
और नासमझ तुझको ख़बर तक नहीं ।
मैं माँ हूँ-
नादान ही कहूँगी मतलबी कहने को दिल नही मानता
मैंने जिसे बना कर संजो कर रखा वही आज खड़ा है मेरे आगे हक़ की थाली में मेरा अंत ले कर ।
अरे ! मैं आरंभ हूँ तेरा पर मुझसे अलग तू कोई मेरी शाख नही है- मैं तुम हूँ- मुझ में तुम हो ।
मैं आरंभ हूँ तेरे बदन का मैं आरंभ हूँ तेरी सोच का ।
ख़ाक के तुम मुझ में ही मिलोगे
मतलब से ही मगर अब फ़िक्र करो
मुझ में तेरा प्रचंड अंत है ।
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This poem won in Instagram Weekly Contest held by @delhipoetryslam on the theme 'Mother Gaia'