Kavya Sutra

इश्क़ का तज़ुर्बा न था
ऐ ग़ालिब...
लेकिन जब पत्थरों पे लेटे हुए
फूलों का बिछौना महसूस हुआ,
तब लगा के कहीं ये इश्क़ तो नहीं।
इश्क़ का तज़ुर्बा न था
ऐ ग़ालिब...
लेकिन यूँ बातों ही बातों में जब उसने
अपने मुस्तकबिल में "मैं" की जगह "हम" कहा
तब लगा कहीं ये इश्क़ तो नहीं!
इश्क़ का तज़ुर्बा न था
ऐ ग़ालिब...
लेकिन अमावस की स्याह रातों में भी जब
उसके चेहरे में चाँद का अक्स नजर आया
तब लगा कहीं ये इश्क़ तो नहीं।
इश्क़ का तज़ुर्बा न था
ऐ ग़ालिब...
लेकिन उस दिन समुन्दर किनारे जब उन रहत के पलों में
जब उसने मेरे कन्धे पे सर रख दिया
तब लगा कहीं ये इश्क़ तो नहीं।
इश्क़ का तज़ुर्बा न था
ऐ ग़ालिब...
दरगाह से आ के जब उसने
मेरी कलाई पे मन्नत का धागा बाँध दिया
तब लगा शायद यही इश्क़ है।
इश्क़ का तज़ुर्बा न था
ऐ ग़ालिब...
अपने मुस्तकबिल में “मैं” की जगह “हम” कहा
तब लगा कहीं ये इश्क़ तो नहीं!
Could relate to the complete poem but this line just took my breath!! बहुत सुन्दर।