दो चार पैसों की व्यथा

उस बासी रोटी का पहला ग्रास
ज्यों ही मैने मुँह मे डाला था
चिल्लाकर मालिक ने मेरे
तत्क्षण मुझको बुलवाया था/
कहा टोकरी भरी पड़ी है
और गाड़ी आने वाली है
लगता है ये भीड़ देखकर
आज अच्छी बिक्री होने वाली है/
करता है मन मेरा भी
खेलूँ मैं यारों के संग
पर है ये एक जटिल समस्या
'ग़रीबी' लड़ता जिससे मैं ये जंग/
पर है यकीन मुझको की
बापू जब भी आएँगे
दोनो हाथों मे दुनिया की 
खुशियाँ समेटे लाएँगे/
पर आज बरस बीते कई
ये सपने पाले हुए
बापू यहाँ होते तो देखते
मेरे पैर-हाँथ काले हुए/
बापू कमाने परदेश गये
माँ मुझसे बोला करती थी
पर जाने क्यूँ रात को वो
छुप-छुप रोया करती थी/
माँ,क्यूँ रोती है,बापू यहाँ नहीं तो क्या
मैं भी तो घर का मर्द हूँ
जब तक वो आते हैं तब-तक
मैं तुझे कमाकर देता हूँ/
अरे! नहीं पगले कहकर
वो और फफककर रोती थी
सिने से मुझको लगाकर
वो लोरी गाया करती थी/
अब आ चुकी गाड़ी यहाँ
अब मैं चढ़ने जाता हूँ
इन समोसों को बेचकर
दो-चार पैसे कमाता हूँ/
समोसा बेचने के खातिर
मैने हर डिब्बे पर चिल्लाया था
कि तभी हुई अनहोनी ये ज़रा
मैं एक औरत से टकराया था/
बस ज़रा सा लग जाने पर ही
वो मुझपर झल्लाई थी
पर फ़र्क नहीं पड़ता मुझको
ये तो मेरे हर दिन की कमाई थी/
पर होना था कुछ और सही
जो आँख मेरी फड़फड़ाई थी
मेरे गालों पर पढ़ने वाली
वो उस औरत की कठोर कलाई थी/
पर क्या करता मैं लोगों
ने कहा आगे बढ़ जाने को
और कुछ नहीं था मेरे हाथो
बस इन आंशूओ को पोंछ पाने को/
दो कदम चल कर मैने
अगले डिब्बे पर कदम जमाया था
क्या? इस बच्चे के आंशू मोती नहीं
केवल उसका साया था/
पर व्यर्थ समय नहीं मुझको
माँ को क्या जवाब दूँगा
इससे अच्छा है की मैं
दो-चार पैसे कमा लूँगा/
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This poem won in Instagram Weekly Contest held by @delhipoetryslam on the theme 'Street Kids'

4 comments

  • Moving!

    Gaurav Bhatnagar
  • “पर फ़र्क नहीं पड़ता मुझको
    ये तो मेरे हर दिन की कमाई थी।”
    कुछ पंक्तियां दिल को छू जाती हैं 🧡

    शिवाय दीक्षित
  • Bahut khub likha h aapne…..

    Hemant Sharma
  • मार्मिक

    Harshit

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