By Priyamvada Rana
सफ़ेद धुँए से रात को छल्ली कर,
जब फ़क़ीर ये फ़रमाऐं,
"नशों मैं अब वो बात नहीं"!
तो इन पर हँसना मत यारों,
वो क्या है ना,
इश्क़बाज़ी के सुरूर में,
जिनके दिल अमीर होते हैं,
ऐसे फ़क़ीरों को ,
हर नशे सस्ते लगते हैं।
जगमगाती शिरकत -ए-महफ़िल से,
जब जाम लिए,
एक नवाब रुखसत कर जाएँ,
और अमावस कि रात को,
चाँद के ििनतेज़ार में,
वो एक जाम पूरी रात चलाएँ,
तोह इश्क़ के रंग
मर्ज़ बन गए हैं
समझलेना यारों।
इससे पहले की,
"मैं" और "तुम" लिखकर,
अपनी ही कहानी में,
मैं खुद को बांट लूँ,
तो मुझे याद दिला देना यारों,
सस्ते नशों के शागिर्दों को,
इश्किया फ़क़ीरी मेंहेंगी लगती है,
नवाबी ठाठ छोड़कर,
गर दीवाना बनने को कहोगे,
तोह ये दुनिया हमें,
बे-ईमान सी लगती है।
You are really growing as a writer Priyamvada. I feel proud of you.
Beautiful poem. ये नज़्म ख़ुद में एक किस्सा है. किसी ने सही कहा है कि फकीरी में भी aristocracy का मज़ा देती है उर्दू :)
Beautifully penned. Keep writing.
Beautifully framed a complete scenario…Keep up the good work….