वो दिन भर खेलना, वो नादानियो का बावल,
वो पडोस मे छूपना, वो रात का मलाल,
वो दादी के हाथ का शीरा, वो माँ का परोसना,
वो पसंद की फरमाइश, नापसन्द को कोसना।
वो स्कूल बस को पकडना, वो दोस्तों का मिलाप,
वो चॉक चुराना, या गेम पीरियड के लिए जाप,
वो हफ्ता मज़े में कटे फिर भी रहो रविवार के नवाब,
वो जिंदगी की छोटी छोटी दिक्कते, और बड़े बड़े ख्वाब |
वो दुस्सेहरे का दहन या दिवाली का फरार,
वो मंदिर की घंटी और हम पापा के कंधो पे सवार,
मेरे सपने की फिल्म में यह लम्हा किसी खान सा छागया है,
पीछे से किसी ने टपली मारी कहा - "उठ, मैनेजर आगया है" |
अब गयी वो नवाबी, अब तोह 9 से 5में मै खुद को टटोलता हु,
अब मै ज़िम्मेदारी के गुलक में नादानियों को बटोरता हु,
जब नकाबों से नहीं, साफ़ आयनों से थे अपने मन,
ऐसा हसीन सफर था अपना बचपन |
6 साल होगये घर छोड़े, कितने रास्ते बदल चुके है,
घर कही नहीं मिला, जबकि कही जगह रुके है,
अब जीतने की और ज्यादा पाने की ऐसी है लत लगी,
मगर क्या करे यह सफर है ज़िन्दगी का, या अब सफर ही ज़िन्दजी ||
Good work.
Beautifully written!
Nyc lines