By Paras Sharma
अब सुनाता मैं एक कहानी हूं,
इन सड़कों पर बसेरा करने वाले बच्चो की ज़ुबानी हूं,
बच्चे, जिनके पास ना कोई पीना ना कुछ खाना,
ना घर है ना कोई ठिकाना,
गलियों में रहने वाले सितारों कि पहचान नहीं है,
ना कोई भविष्य - वर्तमान नहीं है,
अपनी आंखों में उम्मीद की लो जलाते ये बच्चे,
अपना दुख किसी को ना बतलाते ये बच्चे,
जीवन में संघर्षों की कमी नहीं,
उन संघर्षों से आंखों में नमी नहीं,
डगर डगर फिरते, कुछ खाने को ढूंढते,
ना मिले तो भूखे पेट ही आंखें मुंदते,
मंदिरों के बाहर बैठे भूखे बच्चे,
फिर भगवान का पेट कैसे भर गया,
चड़ती रही मज़ार पर चादरे,
और सर्दी से एक बच्चा मर गया,
है छोटे, पर अपने घर के बड़े,
पढ़ाई - खेल कूद छोड़ किन कामों के चक्करो में पड़े,
समय से पहले बचपना गया,
गया हसी का वो पल,
अब तो बस उन्हें संघर्ष ही है करना,
कल आज और कल,
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This poem won in Instagram Weekly Contest held by @delhipoetryslam on the theme 'Street Kids'