हाथो से खाना

By Komal Gurung

 आँखें खुली तो महलो सा घर पाया 

बचपन से ही सबने पलकों पे बिठाया

 बात आई जब पहले निवाले  की

तो मैंने चाँदी का चमच्च नही, माँ के सोने जैसे हाथो से खाया

 

Etiquettes के नाम पे छाया बबाल है   

Sophistication में चमच्च तो चला ली, पर पेट का बुरा हाल है 

Table manners ने तो मानो  जान ही लेली

फिर भी हाथो से खाने का, न कभी हुआ मलाल है

 

छुरी-कांटा मानो खेल सा लगता है

हाथो के आगे ये सब फ़ैल सा लगता है

यही हिंदुस्तान है, जो मुझ में  समाया है

चमच्च से खाना तो सिख लिया, पर हाथो जैसा स्वाद चमच्च  में कहा मिल पाया है

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This poem won in Instagram Weekly Contest held by @delhipoetryslam on the theme 'Indianess'

7 comments

  • Nicely expressed…👍

    Karuna Gurung
  • Such a nice poem. Defines Indians truly!

    Dyuthi
  • देखो जग सारा
    इस कविता ने मेरा दिल छू डाला है 👏

    Mohini Gurung
  • Yad aata hai bachpan kai woh din jab bhai bhen maa kai hatho sai khanna khanai kai liyai jhagadtai thai .

    Ujwal Gurung
  • Defines us – Indians…. wavering between being desi and modern.

    Kritiyamika
  • Young generation can learn a lesson from this poem, smooth expiration of thoughts by writter. Well done.

    Monk
  • Awesome one, nicely written keeping in mind our world famous way of eating.
    Excellent

    Prashant Kandpal

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