ब्रज भूषण पाण्डेय
बिन बोली की बात अलग है
पहली रात की बात अलग है
जब अनजाने दो बदन मिलेंगे
जैसे कि धरा और गगन मिलेंगे
जिस्म, जिस्म को छुएगा जब तो
एक सिहरन-सी छा जायेगी
वो छुईमुई अधखिली कली
कुछ शरमाएगी घबरायेगी
आकाश में बिजली चमकेगी जब
अधरों पे अधरों का घर्षण होगा
और यौवन के उस बादल से
घनघोर प्रेम का वर्षण होगा
दो जिस्मों के भारों से
दबी हुई वो सेज रहेगी
साँसों में साँसें मिली रहेंगी
और धड़कन भी कुछ तेज रहेगी
बाहुपाश में भरने को
एक-दूजे को वश में करने को
वो ख़ूब जोर लगायेंगे
और इक तूफ़ान-सा लायेंगे
एक ज्वार उठेगा फिर
जो ऊँचाई तक जाएगा
और पहुँच कर लक्ष्य पे अपने
वो वापस आ जाएगा
फिर आँधी वो रुक जायेगी
वो छुईमुई भी झुक जायेगी
सदियों का जीवन जी गए हैं दोनों
एक-दूजे को पी गए हैं दोनों
जो आज उन्हें महसूस हुआ
थोड़ा ये जज़्बात अलग है
बिन बोली की बात अलग है
पहली रात की बात अलग है
अतिसुन्दर
Bahut sunder Bhai Kya khub likha Hai
तुम्हारी कविता मेरे दिल को छू ली