सफर

आंखे नम थी ओंठो पे एक मुस्कान थी,
जब मम्मी पापा हॉस्टल मै छोड़के जा रहे थे एक बेचैन करने वाली शाम थी।।
वो एक एक दिन दीवाली कि छुट्टियां का इंतजार करना ,
कब जा पाऊंगी अपने शहर यही सोचकर बेकरार रहना।
वो दो महीनों का समय बीता,
फिर कुछ समय के लिए उस जेल से पीछा छूटा।
स्टेशन मै ट्रेन का मिनटों इंतज़ार करना,
फिर वो ट्रेन मै बैठ कर कल क्या क्या करूंगी यही सोचकर मुस्कुराना।
वो 600 किलोमीटर का सफर 6000 किलोमीटर का लगने लगा था,
सुपरफास्ट ट्रेन मुझे सुपर स्लो लग रही थी पता नहीं ऐसा क्यों हो रहा था।
रात ख़तम हुई फिर सुबह अपने शहर की हवा महसूस करके मानो मुकम्मल दो महीनों की तपस्या हुई।
दो दिन हुए यही सोच रही हूं कुछ दिन बाद फिर सफर करके उस जेल मै जाना है,
जहा बचपन बीता वो जगह फिर छोड़ना है,
क्युकी मै सफर की थी सफर की ही रहना है।
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This poem won in Instagram Weekly Contest held by @delhipoetryslam on the theme 'Travelling' 

1 comment

  • Good one, Keep it up !

    Heta

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