विद्रोह और बेचैनी

By Kritika Choudhary
कल रात से कुछ मन में है,
कुछ विद्रोह सा;
तोह कुछ बेचैन सा! 
किसी से कहूं,
या मन में दावा दूं।
तोह सोचा लिख दू। 
सुना है कागज़ 
बाते समझती है! 
एक रात बालकनी में बैठी मै,
निहारती तारों को
खोई हुई जी रही थी उन रातों को। 
तब अचानक बगल के घर से ज़ोर से आवाज़ आयी।
दिमाग ने अंदर चल,
पर मन ने रुक का सुनने को कहा।
मर्द की तेज आवाज़ ने,
उत्सुकता जगा दी 
तोह एक औरत की रोती आवाज़ ने 
बेबस कर दिया।
कुछ आपसी लड़ाई थी उनकी ,
पर लड़ वो रहे थे 
और हार मै गई।
सामाजिक बंधन में उस औरत ने कुछ ना बोला 
और मै सिर्फ देखती रही।
मन में एक विद्रोह जगा 
और बेचैनी भी
पर सिले मेरे होठ 
और देख रही मेरी आंखें 
और रोता मेरा मन 
सिर्फ सुनता रहा 
देखता रहा ।
आज तुमको बताया 
क्यूंकि लिखना उतना मुश्किल नहीं 
जितना बोल कर समझाना होगा।

4 comments

  • Amazing 🔥

    Riddhi
  • Great write my friend❤️
    Last two lines🔥

    Aparna
  • Proud of you ❤❤

    Jaya kumari
  • खुबसुरत 💖 💓

    That Bihari Writer

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