लोग क्या कहंगे?

By Habiba Zaidi

 

लोग क्या कहंगे?
यही हमेशा सोच कर
नज़रों के सामने से
कितने पलों को तुमने निकलते देखा है?
हाथों से उनको अपने फिसलते देखा है।

लोगों के डर से
क्या नहीं मुस्कानों को तुमने
चेहेरे पर से गुम होते देखा है?
क्या नहीं खुद के सपनों को तुमने
लोगों के डर से दबते देखा है?

उस फूल की तरह न बनना
जो तोड़ दिया जाता है
पैरों के नीचे कुचल कर जो
अपने ही बाघ में
परायों सा दफन कर दिया जाता है।

अब छोड़ो ये तुम लोगों का कहना सुनना
सपनों को अपने अब तुम उड़ान दो
पंछियों सा आज़ाद
ऊंचाइयों को छूना है तुमहे
बस तुम यह ठान लो।

एक सवाल है अब सबसे‌
इच्छाएं मार कर हम अपनी
कबतक ये सहेंगे?
कबतक बस यही सोच कर घुटते रहेंगे?
की लोग क्या कहेंगे।

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This poem won in Instagram Weekly Contest held by @delhipoetryslam on the theme 'What will people say / Log kya kahenge'
Photo Credit: Pakistani Martha

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