Sakshi Dubey
क्या दिन थे वो
कितने सुहाने थे वो
मेरे वो बचपन के दिन
मधुमति सुबह में गूंजती थी किलकारी,
मेरे प्यारे घुँघरूओं की आवाज थी न्यारी
इठलाती धुप मे सखी संग खेलती रहती,
प्यारे प्यारे भवनों में घूमती रहती
खेलों की प्रतियोगिताओं में चली जाती,
सभी को हराकर जीत दिलाती
शिक्षा एवं कला में रहती थी अव्वल,
वक्तव्य सम्मेलनों में मेरी मधुर वाणी की हर जगह होती हलचल
संगीत गुनगुनाना था मुझे पसंद,
मेरी चित्रकारी को भी मिलता सभीं का अपनापन
कभीं मां की स्नेह भरी आंचल मैं बैठ खुशनुमा यादों को गुनगुनाती रहती,
तो कभीं आने वाले सुंदर भविष्य की गढ़ना में लग जाती
थी मैं सबकी लाडली, सबकी चहेतीं
न जाने कब लगी इन हाथों में लाली
छोड़ कर चली गई अपने आंगन की किलकारी
कितने सुहाने दिन थे वाे,
अब केवल चंचल धुनों की तरह मस्तिष्क
मे बसें रह गए हैं
जिंदगी अब उतनी खुशनुमा नहीं रही,
भीतर की आवाजें चीख कर बस यही कह रहीं
लौटा सकें तो लौटा दें, मेरे वो बचपन के दिन.