Neeraj Manral
दम भरे जब मेरा हाकिम जग में
मैं आब का जामा पहन के आऊं।
इल्म हवा की कायल हो के
मैं रेंग रेंग के कमल हो जाऊं।
वो खेत खेत जब बारूद बीजे
में आतिश में से चुन के आऊं।
दर्द उठे जब दीन की रग में
मैं शायर की नज़र बन जाऊं।
जब मजबूरी रास्ता रोके बैठे
मैं खोज की चुन्नी ओढ़ के आऊं।
धूल हेट मेरे मुकद्दर से जब
मैं अफसोस की गिनती भूलती जाऊं।
रात राख में कुंदन बन के
मैं हर सुबह में घुलती जाऊँ।
जोर-अकल की बाज़ी चुन के
मैं शमशान को चकमा देती जाऊँ।