By Anup Pandey
‘सख़्त था पहरा इन निगाहों पर.. आँसू न कोई निकले,
दर्द को न जाने..कौन सा सुराग़ मिल गया’
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शायद..नासमझी थी,
या कह लो मुझे..एक बेमुरव्वत जान थी,
तुमने..कभी तो कुछ कहा नहीं,
सब कुछ..तो बस सहती रहीं,
क्यूँ ना समझा..मेरे ग़ुस्ताख़ इरादों को,
क्यूँ ना समझा..चलते मन में तेरे सवालों को,
अब तन्हाई कहती..गुज़रे वक़्त की है कहानी,
कुछ पास तो हैं.. पर चाहत है अनजानी,
कहीं कुछ टूटा सा है..है ये पता मुझको,
तेरा दर्द तू ही झेले..बता..कैसे बाँटू इसको,
बस..अब बीते,बुरे लम्हों से रिहायी दे मुझको,
माफ़ कर दे.. तो समझू पा लिया तुझको,
तुझे..गले लगा के जी भर रो न सका,
अब बाँहों में भर..हद तक प्यार करने दे,
रात..यूँ ही कट जाती हैं बैठे बिस्तर सिरहाने,
मेरे इस दर्द को कम्बख़्त..पूरी तरह अब आँखों से बहने दे |
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This poem won in Instagram Weekly Contest held by @delhipoetryslam on the theme 'My Sincerest Apologies'
Thanks for giving the opportunity and selecting my poem for the E – Magazine.
Anup