By Shubham Jain
रोज़ शाम हम गंगा किनारे बैठकर,
ताकते हैं नदी में गश्त लगाते,
खिलखिलाते बच्चे।
काफी तेज़ होते हैं ये नटखट,
सतह तक डुबकी लगाकर
ले आते हैं ये सिक्के।
आफ़ताब के ढ़लते ही चुपके से,
गायब हो जाते हैं घाट से।
कहाँ जाते हैं, वे सिक्के, वो बच्चे,
कोई नहीं जानता।
फिर नयी सहर, लाती है कहर।
लकड़ियों में बंधी हुई,
मैं देखता हूँ कई चिताएं।
आग में झुलसती हुई,
शोलो सी भभकती हुई,
समय के दरमियाँ,
राख हो जाती है।
ताकता हूँ मैं रोज़ाना
गंगा किनारे बैठकर,
कुछ खुशी तो कुछ गम के साये,
और कहता हूँ खुद से
कि चाहे कुछ हो जाये 'शुभम'
ये घाट, ये गंगा,
ये बच्चे, ये चिताएं,
बहर-हाल इस जन्म में तो हमसे
बनारस ना छोड़ा जाए।
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This poem won in Instagram Weekly Contest held by @delhipoetryslam on the theme 'Indianess'
Bahot sundar .
Kavita padte hue aisa lga ki banaras me hi baithe hain ganga kinaare aur bas yahi baithe rahe .
कहीं तुम्हारी कविता सुनने का चस्का ना लग जाए।❤
Someone who has visited Banaras, can feel the suffering that is caused by the return of the trained memories stored inside them of this land of chaotic peace!
Sukoon.