एंफील्ड, केटीएम का ज़माना है, मेरे बच्चे मुझसे कहते हैं,
सर आप बाइक क्यूँ नहीं लेते, अब भी साइकल चलाते हैं।
अब मैं उन्हे क्या कहूँ, की जब भी वो मेरे पीछे बैठती है
और कस के मुझे पकड़ती है, मैं मंद मंद मुस्काता हूँ,
माना की थोड़ा बेसी, पर क्या करूँ मैं देसी हूँ ।।
जस्टिन, शीरन, बेयोंसे, स्विफ्ट, नाम गान सुन रख्खे हैं,
पर किशोर, रफी को हरा सके, ऐसे धून किथ्थे हैं?
तेज़ डीजे की मार से खुद को संभाल रख्खे हैं ।
महफिल हो, तनहाई हो, इनके गानो में ज़िंदगी पाता हूँ,
माना की थोड़ा बेसी, पर क्या करूँ मैं देसी हूँ ।।
इस फास्ट फास्ट के जमाने में फूड भी अब फास्ट हैं,
बर्गर हैं, पिज्जा है, नूडल्स और मैगी हैं,
पता नहीं स्वास्थ में यह किस काम आते हैं ।
अपने टिफ़िन बॉक्स को भर के मुड़ी अब भी मैं ले जाता हूँ,
माना की थोड़ा बेसी, पर क्या करूँ मैं देसी हूँ ।।
पासपोर्ट बनाने की होड़ लगी है, वीज़ा की मारामार है,
फ़ॉरेन ट्रिप जाना है, अब तो यही फ़ैशन है,
ट्रैवल एजन्सि वाले भी क्या खूब मन को ललचाते हैं।
हर स्कूल की छुट्टियों में, अपने गाँव घूम कर आता हूँ,
माना की थोड़ा बेसी, पर क्या करूँ मैं देसी हूँ ।।
बाज़ार जो मुझे जाना हो, पत्नी संग जाती हैं,
आलू कैसे, भिंडी कैसे, मोल भाव वो करती हैं,
दो- तीन, चार- पाँच मेरे बचाकर, वो बहुत खुश हो जाती है।
मैं उन्हीं पैसों से जलेबी खरीद ले आता हूँ,
माना की थोड़ा बेसी, पर क्या करूँ मैं देसी हूँ ।।