By Gaurav Bhatnagar
क्यूँ टोकता हूँ तुम्हें
ख़ुद मन की करूँ…क्यूँ रोकता हूँ तुम्हें
छोटी सी ही बात पर क्यूँ दबाता हूँ तुम्हें
प्यार करता हूँ तो जवाब क्यूँ माँगता हूँ
और फिर नज़रें क्यूँ नहीं मिला पाता हूँ
सुनोगी मेरी हमेशा ऐसा तो नहीं सोचता
करोगी मेरी कही ये भी नहीं जँचता
फिर क्यूँ ऐसा इंसान बन जाता हूँ मैं
तुमसे पहचाना भी नहीं जाता हूँ मैं
सपने तुम्हारे भी हैं ये क्यूँ भूल जाता हूँ
आशाएँ तुम्हारी मुझसे भी हैं
वो वादे क्यूँ नहीं निभाता हूँ
परवरिश है ये या सदियों की सीख़, की रखूँ तुम्हें थोड़ा सा खींच
परवरिश है ये या सदियों की सीख़, की रखूँ तुम्हें थोड़ा सा खींच
माँ को भी देखा था पिसते इस पाटे के बीच
अहल्या, शकुंतला, सीता में भी शायद बोए गए थे इस सोच के बीज
संगिनी, जीवन तरिंगनि हो तुम ये समझता हूँ
मेरे अरमान तुमसे, तुम्हारे ख़्वाब मुझसे ये अहसास भी रखताहूँ
तोड़ रहा हूँ सदियों के भ्रम...तुम्हें दबाने का ये क्रम
प्यार तुमसे करता हूँ, तुम्हें भी उड़ते देखना चाहता हूँ
करी है नयी शुरुआत, फिर साथ तुम्हारा चाहता हूँ
अब तुम्हारे साथ उड़ना चाहता हूँ