By Arun Kumar Singh
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गाहे बगाहे उन दिनों हम
मिल ही जाते थे
मुमकिन था मुस्काना मगर
मुँह मोड़ जाते थे
बदजुबान थे हम, काश की
चुपचाप ही रहते,
उस मासूम से क्यों बदजुबानी
कर ही जाते थे
खुद को सूरमा समझे
वो धोखा बदगुमानी का
हमको, हक नहीं था, उनसे कुछ भी
कह भी पाने का
उन्होंने, इन्सानियत के नाते हमसे
बात क्या कर ली
बेबात की हम बदतमीजी
कर ही जाते थे,
आज, मशगूल है तू खुशीयों में,
बुरी याद सा हूँ मैं
दबा, एक बोझ सा है सीने में
बरबाद सा हूँ मैं
सज़ा देना जितना चाहो
ऐ दोस्त जब मिलना,
तेरी माफी के इन्तजार में
फरियादी सा हूँ मैं
गुजारिश है, मेरे कल को करना,
अगर माफ कर सको
नयी दोस्ती नये कल का
आगाज़ सा हूँ मैं
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This poem won in Instagram Weekly Contest held by @delhipoetryslam on the theme 'My Sincerest Apologies'
Beautiful 👌