By
Vishakha Goel

कपड़ों की सलवटों के पीछे
जो कभी मेरे थे नहीं,
बैठा रहा मै आंखें मीचे
डर ज़हन में थे कई,
हर रोज़ कतरा कतरा करती हो जैसे आरी,
वो बंद अलमारी !
ताली के छेद से तलाशता
वो एक ज़र्रा रोशनी का,
कितने अरसे ख़ामोश था
जैसे असर बेहोशी का,
दरवाज़े अकेले खोलना पड़ रहा था भारी,
वो बंद अलमारी !
उस फरेब की घुटन में
खुद में खुद को खोजता,
अलग होने की चुभन में
गैर लफ्जों से था नोचता,
कुछ गलत सा हूं, कहती ये दुनिया सारी,
वो बंद अलमारी !
उस किरदार को पीछे छोड़कर
मुद्दतों से कैद था जिसमें,
दो रंगों की बेड़ियां तोड़कर
इन्द्रधनुष कैद था जिसमें,
खुद को दुनिया से मिलाने की अब है बारी,
खुल गई, वो बंद अलमारी!
Shukriyaa!
सुन्दर अभिव्यक्ति
सुन्दर अभिव्यक्ति