एक रोज – Delhi Poetry Slam

एक रोज

हमारी अम्मी जान ने हमें रोका और टोका
 यह लड़कों के साथ घूमना बंद करो 
'लोग क्या कहेंगे'
और हम बचपने में समझ ही ना पाए |
एक अनदेखी बंदिश ,
हमारे पांव में उस रोज ही बंद गई थी ,
जब हाथों से गाड़ी छीन के ,
लड़कीयों की गुड़िया थमा दी गई ,
और हम समझ ही ना पाए |
महसूस तो उस रोज हो जाना था,
जब हमारी दोस्त ने ,
हमारे सफेद कुर्ते में लाल दाग ,
यह कहकर छुपाया की ,
ध्यान दो 'लोग क्या कहेंगे'
और हम समझ ही ना पाए
हमारी उड़ान भरने से पहले ही ,
हमारे पंख इन 'लोगों' ने ,
काट के हमारे अंदर ही दफना दिए |
और अब यह बंदीशे 
तो हर रोज महसूस होती है ,
ब्रा स्ट्रैप ठीक करने से ,
लड़कों से दूर रहने तक ,
पूरे कपड़े पहनने से ,
घर जल्दी आने तक ,
हर रोज हर पल |
बस अब इस सवाल का जवाब ढूँढती हूँ ,
कि 'क्या हम ही वह लोग हैं जो कहते हैं लोग क्या कहेंगे'?
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This poem won in Instagram Weekly Contest held by @delhipoetryslam on the theme 'What will people say / Log kya kahenge'

3 comments

  • Excellent work….

    Parvathy Vivek
  • Amazing more power to girls

    Riya Patel
  • Superb!

    Kate M

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