By Vidhan Verma
सर्ग १
आया बर्बरीक माता से मिलने
श्रद्धा के साथ किया नमन
आज्ञा से फिर माता की
प्रस्तुत किया अपना निवेदन। १।
बज रही है दुदुम्भी युद्ध की
कुरु - पांडव ने सेनाएं सम्भारी हैं
बदलेगा जो भविष्य भारत का
महाभारत संग्राम वो भारी हैं ।२।
नहीं लड़ाई सिर्फ धरा-अंश की
धर्मयुद्ध कह रहे ज्ञानी हैं
हुआ नहीं - न होगा कभी
न्यायिक मुहूर्त ये बलवानी है ।३।
न्यौते भेज रहे हैं रण के
धृतराष्ट्र और पाण्डु के अंश
यम होंगे स्वयं उपस्थित
अभूतपूर्व होगा ये विध्वंस ।४।
बड़ भाग्यवान हूँ माँ मैं
ऐसे समय मैं जनम लिया
काल निर्णय जो काल करेगा
उस काल का चछुपान किया ।५।
भीम महाबली पौत्र कुरुवंशज
मोरवी- घटोत्कच संतान हूँ
सत्य के इस निर्णायक पल के
सम्मलेन का आकांछ हूँ ।६।
मांगू मैं अनुमति तेरी माँ
दे दे अपना आशीष मुझे
कुरुक्षेत्र की पावन रज माँ
मेरा मस्तक पर भी सजे ।७।
माँ अहिलावती ने निहारा सुत को
इक फेरा हाथ केशो मैं
इक अश्रु बना चछु- कोर मैं
तत्क्षण समेट लिया आँचल मैं ।८।
पराक्रमी पूत मेरा हैं तू
क्षत्र धर्म का पालन कर
अपने बल से इस जीव धर्म की
नियति का तू पूरन कर । ९।
मन में तेरे लेकिन क्या है
माता को भी करा दे ज्ञात।
किसके हित में धनुर उठेगा
किसका देगा तू साथ?। १०।
बोला फिर वो युवा
माता को कर नमन
विकट असमंजस है माँ
तुम सुझाओ कोई जतन । ११।
जननी नहीं माँ सिर्फ मेरी तू
तू ही मेरी गुरु भी हैं
किस राह पर बढूं आगे मैं
सीख तुझसे ही लेनी हैं। १२।
परिजन खड़े हैं ओर दोनों ही
ये अजब युद्ध का खेल हैं
कुरुरक्त रंगेगा कुरुक्षेत्र को
ये निष्कर्ष निश्चित बेमेल हैं। १३।
तो किसके लिए उठाऊं खडग माँ
और किस पर करू प्रहार मैं
कहा धर्म हैं, अधर्म कहा हैं
किसको करूँ स्वीकार मैं। १४।
राजस पुत्री महाज्ञानी मोरवी
बोली कुछ क्षण विचार के
धर्म - अधर्म वो खाली पृष्ठ हैं
भरता जिन्हे इतिहास है। १५।
धर्म अलग है हर प्राणी का
सबकी पृथक परिभाष हैं
लिखा जायेगा विजय कलम से
भविष्य करेगा न्यास हैं।१६ ।
सो कौन सही हैं गलत कौन हैं
ये तो समय बतलायेगा
जिसका होगा विजय तिलक कल
धर्म तिलक वही पायेगा ।१७।
तो पुत्र मेरे तू साथ दे उसका
पक्ष जिसका अशक्त लगे
हार लगे जिसकी संभव तुझे
गले उसके तेरा हार सजे ।१८।
अभिमान देती विजय है
विनम्र बनाती है हार
निष्कर्ष कोई , रहे परिपक़्व
तेरा ये चरित्र आधार । १९।
जा आज्ञा है मेरी तुझको
और ये आशीर्वाद सतत
स्कंध तेरे असहाय अशक्त के
बनकर रहे शक्ति स्तम्भ निरत। २०।
चरण वंदन कर गुरु- माता का
चल निकला योद्धा जवान
भारत भविष्य मैं होने शामिल
क्या छोड़ेगा अपना भी निशाँन ?। २१।
सर्ग २
नीलाश्व पर आरुण हो बांकुरा
कंधे पर सुनेहरा तीर कमान
पूछे राहगीर रुक- रुक कर
देव है या कोई राजे महान ?। २२।
अविरल चलता रहा वीर
कुरुक्षेत्र अब नहीं दूर था
तभी इक ब्राह्मण ने संकेत से
घुड़सवार को रोक लिया। २३।
भेंट हुयी कुछ वार्तालाप
बोले ब्राह्मण वीर करो एक समाधान
जाते हो तुम महाभारत रण को
पर तूणीर मे तो तीन ही बाण?। २४।
हसकर बर्बरीक बोला "ब्राह्मण देव
कृपा विशेष हैं मुझ पर
तीन पर्याप्त हैं ये शर मेरे
करने को उत्पात प्रखर"। २५।
ब्राह्मण वो भी था हटधर्मी
यूँ नहीं करता कुछ स्वीकार
सर हिलाये अविश्वास मे
आंच बिना सब साँच बेकार। २६ ।
कितना प्रखर? ब्राह्मण ने पूछा
थोड़ा विस्तार से बतलाओ
मानदंड रखता हूँ वीर अन्य का
मान उनका ले समझाओ। २७।
दिवस बीस मे लहरायेंगे
वो कौरव विजय पताका
घोषणा ऐसी करते हैं
कहलाते जो भीष्म पितामह। २८।
गुरु द्रोणाचार्य गिनते
अनुमानित दिन पांच और बीस
अंग राज कर्ण हैं कहते
दिवस लगें उनको चौबीस। २९।
वही धनुर्धर अर्जुन कहता
दिन अठाईस लगते उसको
कहो ओ महाबली तुम
कितने सूर्य लगाते हो?। ३०।
कहे बर्बरीक सर झुका कर
निसंदेह बड़े वीर वो सारे
आदरणीय गुरुमह, कर्ण राजे
और पूज्यनीय वंशज हमारे। ३१।
अभिमान नहीं ये मेरा अपितु
इक भक्त का विश्वास अटल
दिवस लगे न लगे पहर
निर्णय में कुछ ही पल। ३२।
हँस कर बोला वो वामन
"करते हो आमोद भोला जान
श्रेष्ठ महारथियो से श्रेष्ठ्तम
कैसे बनोगे, कुछ है प्रमाण ?"। ३३ ।
"क्यूँ बनू भागी पाप का
तुमसे कहकर मिथक वचन?
अपना शक्ति स्त्रोत बतलाता हूँ
सुनलो तुम फिर हे बामन। ३४।
अलौकिक आयुध प्राप्त है मुझको
शिव के आशीर्वाद से
तीन बाण मुझे अजेय बनाते
निकले जो कमान से। ३५।
प्रथम तीर कर देता अंकित
जाकर सारे लक्ष्यो को
अगला इनको नष्ट कर देगा
छिपा क्यों न पाताल में हो । ३६ ।
करके संपन्न कार्य ये आयुध
लौट आएंगे मेरे पास
निरंतर ऐसे बनाता हूँ
शत्रु को काल का ग्रास । ३७ ।
नहीं मानता था वो बामन
नानुकर मैं शीश हिलाता था
बर्बरीक के हर कथन को
मिथ्या ही बतलाता था।। ३८।
हो न मुझे शस्त्र का ज्ञान
पर इतना नहीं मैं मानव अनिभज्ञ
खोखले है सब कथन तेरे,
या है तेरे पास कोई तथ्य?। ३९ ।
बोला सहृदय नहीं असत्य
मेरा कोई भी वचन
पर प्रस्तुत करूँ साक्ष्य कैसा
नहीं बूझ रहा ये अक्षम। ४०।
ब्राह्मण ने दृष्टि दौड़ाई
किया संकेत पीपल पर
छाँह मैं जिसकी खड़े थे
करते संवाद दोनों नर। ४१ ।
छेदित करदे पत्र वृक्ष के सारे
तो मैं तुझे मानूंगा
अथवा बचकाने कुअँर की
कोरी डींगे जानूंगा। ४२।
कर स्वीकार ब्राह्मण की चुनौती
बर्बरीक ने अपना कमान उठाया
बाण को तान कर प्रत्यंचा पर
ईश शिव का ध्यान लगाया। ४३।
मौका देख चपल ब्राह्मण को
भी जाने ऐसी क्या सूझी
अमुक वृक्ष की इक पत्ती
पादुका के नीचे छुपा ली।। ४४।
उधर बर्बरीक के प्रथम बाण ने
कर दिए लक्ष्य सारे चिन्हित
विद्युत सा निकला शर दूसरा
हर एक पत्र करता छेदित। ४५।
फिर ब्राह्मण के पद के ऊपर
वो तीर जा कर मंडराया
हो रहा है क्या ये?
पूछे बामन सकपकाया ! । ४६।
हो न हो नीचे पादुका के
रह गया छिपा कोई पात
खींच लो अपना पग बामन
निश्चित है अन्यथा घात। ४७।
हटा जैसे ही चरण
शर ने भेदा अंतिम पत्र
अचरज से जड़ ब्राह्मण
देखे दृश्य हतप्रभ। ४८।
सर्ग ३
सम्मोहन हुआ समाप्त तब
जब तीर तूणीर में वापस आया
विजयी भव, ओ परम वीर
ब्राह्मण ने आशीष सुनाया । ४९।
"मान गया मैं लोहा तुम्हारा
तुम योद्धा सर्व शक्तिमान हो
अपने बल से भाग्य बदल दे
एकल ऐसे प्राण हो। ५०।
जिसके लिए तुम उठाओगे धनुष
उसको आँच न आएगी
स्वंय शक्ति ही आकर
विजयतिलक कर जाएगी। ५१।
मेरी इक जिज्ञासा शांत कर दो
ओ अजेय कुंवर बलवान
किसका विजय-ध्वज लहराओगे
और हरोगे किसके प्राण । ५२ ।
साझे उसके जो अक्षम हो
माता को ऐसा दिया वचन
पराभव जिसकी प्रायिक लगे
साथ उसके मेरा प्रत्यञ्च। ५३।
अक्षौहिणी ग्यारह सेना कौरव की
पांडव की सेना कुल सात
एक पर भारी डेढ़ पड़ता हैं
धनुर मेरा पांडव के साथ । ५४।
हाय, है ये कैसा दिया वचन
ब्राह्मण की चीख निकलती थी
रक्त कम बहना था कुरुक्षेत्र में
जो तुमको शपथ ये लेनी थी? । ५५।
सर्वनाश ही अब संभव है
कोई प्राण न बच पायेगा
यम की रक्त - पिपास बुझेगी
शमक्षेत्र यहाँ बन जायेगा । ५६।
क्यों नहीं तुमने किया विचार
ऐसी प्रतिज्ञा लेने से पूर्व ?
अब शिव तांडव करेंगे धरा पर
त्राहि- त्राहि सर्वस्व भरपूर। ५७ ।
सिहर गया बर्बरीक इक पल को
नहीं समझ कुछ आता था
मान्यवर,मैंअज्ञानी अनिभज्ञ
बोध कराएं मेरी त्रुटि का। ५८।
प्रभुतुल्य जान माता को
आदेश को शिरोधार्य लिया
दम्भ के ऊपर विनम्र चुना
ऐसा क्या अपराध हुआ?। ५९।
"हे बालक, जब लिया तूने ये वचन
क्यूँ अपने बल का ना माप लिया ?
नियति को तूने अटल माना
पुरुषार्थ अपने को ना भांप लिया ।६०।
पर ओछा नहीं है भाग तेरा
अपितु उत्प्रेरक है हाथ तेरा
महाभारत का महा निर्णय आज
टिका इस पर तू कहाँ खडा।६१।
संग जायेगा जो पांडव के तू
सुनिश्चित विजय उनकी होगी
पर धर्म संकट में तू आएगा
वचन तेरे की हानि होगी। ६२।
तो तू क्या करेगा वत्स ?
तुझको दल बदलना होगा
जो लक्ष्य पर तेरे थे
उनके पक्ष लड़ना होगा। ६३।
पर तेरे पराक्रम बल से
पलड़ा फिर से पलटेगा
जिस ओर तू खड़ा होगा
पासंग उसी ओर ही हो लेगा । ६४ ।
पर ऐसे में तेरे आड़े
शपथ तेरी फिर आएगी
अंततोगत्वा ऐसा होगा फिर
हस्ती सिर्फ तेरी रह जाएगी। ६५।
महाभारत महासंग्राम विकराल है
पर तुम इसको वीभत्स कर दोगे
अपने वचन की मर्यादा में
तुम नष्ट सभी कुछ कर दोगे। ६६ ।
किसकी हार सुधरोगे तुम
किसकी जीत को रोकोगे
रणछेत्र - शमक्षेत्र के अंतर सुक्ष्म को
पूर्णतः निरर्थक कर दोगे। ६७ ।
किस किस को मुखाग्नि दोगे तुम?
परिवार दोनों ओर तुम्हारा हैं
नष्ट करेगा जो सबको
ऐसा हारे का साथ स्वीकारा है? । ६८ ।
सर्ग ४
अश्रुपूर्ण हुयी आँखें सहृदय की
झुक आया अपने टखनो पर
फिर किया ब्राह्मण से निवेदन
सिसक-सिसक के रो- रोकर। ६९।
नहीं स्वीकार ऐसा दारुण अंत मुझे
की परम दुःख का भागी बनू
अपने-पराये सबके नाश का
एकल ही अपराधी बनू। ७० ।
पर करूँ क्या ऐसे में देव
मातर का वचन भी निभाना हैं
कुआँ आगे हैं पीछे खाई हैं
घात मुझे तो खाना हैं। ७१ ।
मेरे इस धर्मसंकट को ब्राह्मण
अब तुम ही हल कर सकते हो
जो ज्ञात हो कोई युक्ति तुमको
मुक्त मुझे कर सकते हो? "। ७२।
युक्ति नहीं एक प्रतिस्थापन हैं
गहन विचार कर बोला ब्राह्मण
ऊँगली बचाकर हाथ कटे जो
ऐसा संभव है एक समीकरण। ७३ ।
बोलो कुंवर क्या तैयार रहोगे
तुम अग्निपथ पर चलने को
इक वचन की रक्षा के खातिर
स्वयं न्योछावर होने को ? । ७४ ।
नैराश्य जिस पर स्थापित था
उस मुख पर एक चमक सी आयी
डूबते को इक तिनक मिली हो
तम में जैसे ज्योत हो आयी । ७५।
इस धर्म विपदा से बचने को
कोई भी यत्न कर जाऊंगा
बोलो देव क्या युक्ति हैं,
ऋणी जीवंत हो जाऊँगा । ७६।
"विषम विधि है सुन लो तुम
भरो तुम इस से पहले हामी
विकट प्रश्न का उत्तर भी
विकराल वीभत्स हानि। ७७।
रणारम्भ के पूर्व प्रावधान हैं
पूजन करना रणभूमि का
शीश भेंट चढ़ती है उसको
लहू तिलक होना हैं जिसका। ७८।
नहीं साधारण हवि बन सकता
रणदेवी का जब यज्ञ सजे
होना होता है वह वीर अद्वितीय
महाराण की प्रथमाहुति बने। ७९।
परमवीर योद्धा तुम हो
पराक्रम तेरा क्या थोड़ा है?
रणबांकुरों के महामिलन में भी
नहीं तुम्हारा कोई जोड़ा है। ८०।
बोलो क्या अपना बलिदान दोगे
रणदेवी की वेदी पर?
वचन तुम्हारा रह जायेगा
विनाश कुधर्म न आये सर। ८१ ।
सुनकर कथन ब्राह्मण का
बर्बरीक ऐसे प्रसन्न हुआ
मानो शीश नहीं देना हो
मांग लियो हो नख नया। ८२।
कृतज्ञ हुआ में ब्रम्हदेव
जो आपने पथ ये दिखलाया
इस अनसुलझी विपदा से
जो अपने मुझे निकलाया।। ८३ ।
सहर्ष शीश का दान मैं दूंगा
क्षत्र प्रारब्ध ही वीरगति हैं
रण को जब निकलता हैं
मृत्यु आलंगित कर लेती है। ८४ ।
एक प्रश्न पर उठता ह्रदय में
इसका भी समाधान करो
इस चाँद क्षड़ों के अतिथि का
थोड़ा ओर सम्मान करो। ८५ ।
दानवीर को विश्व पूजता
पर मान तो है याचक का भी
दान जब दे अस्थिया दधीचि
इंद्र चाहिए वज्र ढ़ोने को भी। ८६ ।
बहमन साधारण संतुष्ट होता
जब मिलता वस्त्र, द्रव्य, अन्न का दान
सरस दिखला दे जो पथ नरबलि का
दिव्यपुरुष वो निश्चय असमान । ८७।
मांगते हो शीश मेरा बलि में
परिचय अपना तो करवा दो
बहरूपिये का रूप त्याग कर
भेट सत्य से करवा दो । ८८।
मुझको अब न झुठलाओ
दर्श कर दो अपने स्वरुप का
मृत्युद्वार से मैं पूँछ रहा हूँ
किसकी कृपा से मोक्ष मिला?। ८९।
सर्ग ४
मंद मुस्काया वो ब्राह्मण
अगले क्षण हुआ अंतर्ध्यान
स्थान पर उसके प्रत्यक्ष उपस्थित
गिरधर कृष्ण हरी भगवान। ९० ।
बोले प्रभु वरदहस्त उठाकर
गदगद हुआ ये ह्रदय मेरा
जब जहाँ होगा महाभारत वर्णन
नाम प्रकाशित होगा तेरा। ९१ ।
भक्त- भगवंत का अंतर पाटा
तुमने अनन्य श्रद्धा से
वर देता हूँ कलयुग मैं
तुझको मेरा ही नाम मिले। ९२ ।
श्याम नाम हम-तुम बाटेंगे
इस धरा पर अंत तक
प्रसन्न हो कर ही लौटेगा
आएगा जो तुम्हारी चौखट । ९३।
दर्श प्रभु का साक्षात् पाकर
विभोर ऐसा था भक्त अनन्य
मानो प् लिया हो निर्धन ने
यकायक ही कुबेर का धन। ९४।
"हे हरी, कृपा तुम्हारी इस छुद्र पर
तुमने इतना मान दिया
कर भक्ति मेरी स्वीकार
मुझको अपना नाम दिया। ९५ ।
उऋण है स्वामी दास तुम्हारा
इतना परम वर प्राप्त कर
अंतिम विनती और कृतघ्न की
स्वीकारो तुम वर दे कर। ९६ ।
आ रहा था कुरुक्षेत्र को
देखने महाभारत का ये अद्भुत रण
जो युगो कालो को बदलेगा
भोगने वो अलौकिक क्षण। ९७ ।
बलि का मार्ग बतलाकर
संकट विकट तुमने लिया हर
महाभारत युद्ध के दर्शन का भी
कर दो प्रबंध जगदीश्वर।९८ ।
तथास्तु बोले संप्रभु
इस जग के पालनहार
भक्त परम की अंतिम विनती
कैसे कर दे अस्वीकार? । ९९।
दिवस अगले को नित्यकर्म कर
बर्बरीक ने इष्ट ध्यान किया
फिर खडग ले स्वयं हाथों मैं
अपना शीश-धड़ अलग किया। ९२।
ले कर शीश अपने भगत का
किया कृष्णा ने शिख पर स्थापित
देख रहा था बर्बरीक वहां से
कुरुक्षेत्र का दृश्य विस्तृत। ९३।
घनघोर घमासान वो युद्ध हुआ
दिन अठारह मैं अवसान
पांडवों ने पायी विजय अंततः
हुआ अपने बल पर अभिमान । ९४।
कौन हैं परम पराक्रमी वीर
अर्जुन- भीम मैं हुआ विवाद
जा पहुंचे कृष्णा के सामने बोले
आप ही निर्णय दो नाथ। ९५ ।
बोले प्रभु सर्वज्ञ भगवान्
नित ही भोले बनकर
"सारथ था मैं अर्जुन का
सीमित दृष्टि रही क्षेत्र पर। ९६ ।
दो ही रहे जगत में जिन्होंने
व्यापक रूप से देखा ये रण
शीश सहृदय का उस शिखर पर
और संजय के दिव्य नयन। ९७ ।
जाकर पूछो श्याम भक्त से
कौन रहा वो योद्धा महान
जिसने परम कौशल दिखलाया
उसको ही होता ये ज्ञान। ९८ ।
तो निकले भ्राता और जा पहुंचे
शिख पर लेकर अपना प्रश्न
कौन परम पराक्रमी वीर रहा
इसका माँगा निवारण। ९९।
सुना ध्यान लगा कर बर्बरीक ने
बोला सुनकर उनका वर्णन
घात तो असंख्य हैं इस रण में
पर घातक एक ही स्मरण। १००।
चहुँ ओर सिर्फ काट रही थी
चक्र सुदर्शन की धार
मिल रहा था सहज ही
मोक्ष सभी को अपरम्पार। १०१।
और जिव्हा थी शक्ति की
लपलपाती जीवंत भरपूर
हास रही उन प्राणो को
सुदर्शन करता जिनको चूर। १०२।
थे क्या तुम भी रण में,
मेरे प्रपिता महान?
क्षमा चाहेगा ये प्रार्थी
कर नहीं पाया पहचान। १०३ ।
समझ संकेत अपने पौत्र का
हुयी असीम ही ग्लानि
बोध हुआ लघुता का
सयाने हो गए अभिमानी। १०४।
माध्यम मात्र हम सारे
कर्त्ता तो वो जगस्वामी हैं
कठपुतली हम मंच पर
डोर तो उसने थामी है । १०५।
तो ये कथा थी बर्बरीक की
शीश के दानी महान
कृपा कर रहे भक्तो पर
कलयुग में बनकर श्याम। १०६ ।
आशीष से जगदीश्वर के
श्याम नाम है पर्याप्त
कष्ट से उबरना हो या तो
कृपा दृष्ट करना प्राप्त। १०७।
कल्याण करो इस विश्व का
हम पर कृपा सदैव रखो
प्रेम शांति ओर सौहार्द से
इस जगत को भर दो। १०८ ।