By Sanjeev Sharma
कर्म बंधन में है जटिलता कितनी
फल छोड़ कर है सरलता कितनी
मैं मैं कर विफलता निकली
समर्पण भाव से है सफलता कितनी
इस भाव मे जी ली ज़िन्दगी उतनी निकली
उद्देश्यपृण राह ही असली निकलीं
व्यर्थ इच्छाओं की बेल जंगली निकलीं
चलती रहीं इच्छाओं पे जो राह नक़ली निकली
भटकती राह जीवन की कहा आ निकली
पिछली ज़िन्दगी की हर चाह पगली निकली
मुझे लूटती मेरी इच्छाऐ ठगनीं निकली
गालियों से जिन गुज़रा अब तक का सफ़र
विचारो की चादर के लिए संकरी निकली
धाव देती कंकरी वो मैं कि दूजी सहेली निकली
पलट पन्ने दिखाती उद्देश्य पूर्ण दुल्हन नई नवेली निकली
नव ऋगार से सुसज्जित चाह अलबेली निकली
कर्म फल कि राह बड़ी पथरीली निकली
जब फली तब रुप बदल निकली
स्पष्ट हूई तो स्तब्ध कर निकलीं
सजा है वही हर तरफ़ भूल करी कितनी
कर्म बंधन में बीती प्रारब्ध थी जितनी
कर्मबघन में है जटिलता कितनी